महाभारतम्-12-शांतिपर्व-081

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  366. 366
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  369. 369
  370. 370
  371. 371
  372. 372
  373. 373
  374. 374
  375. 375

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कृष्णनारदसंवादानुवादः।। 1।।

युधिष्ठिर उवाच। 12-81-1x
एवमग्राह्यके तस्मिञ्ज्ञातिसंबन्धिमण्डले।
मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते।।
12-81-1a
12-81-1b
भीष्म उवाच। 12-81-2x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
संवादं वासुदेवस्य महर्षेर्नारदस्य च।।
12-81-2a
12-81-2b
वासुदेव उवाच। 12-81-3x
नासुहृत्परर्म मन्त्रं नारदार्हति वेदितुम्।
अपण्डितो वाऽपि सुहृत्पण्डितो वाप्यनात्मवान्।।
12-81-3a
12-81-3b
स ते सौहृदमास्थाय किंचिद्वक्ष्यामि नारद।
कृत्स्नां बुद्धिं च ते प्रेक्ष्य संपृच्छे त्रिदिवङ्गम।।
12-81-4a
12-81-4b
दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम्।
अर्धंभोक्ताऽस्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे।।
12-81-5a
12-81-5b
अरणीमग्निकामो वा मथ्नाति दहृयं मम।
वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मां दहति नित्यदा।।
12-81-6a
12-81-6b
बलं सङ्कर्षणे नित्यं सौकुमार्यं पुनर्गदे।
रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद।।
12-81-7a
12-81-7b
अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरासदाः।
नित्योत्थानेन संपन्ना नारदान्धकवृष्णयः।।
12-81-8a
12-81-8b
यस्य न स्युर्न वै स स्याद्यस्य स्युः कृत्स्नमेव तत्।
द्वयोरेनं प्रचरतोर्वृणोम्येकरतं न च।।
12-81-9a
12-81-9b
स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः।
यस्य चापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः।।
12-81-10a
12-81-10b
सोऽहं कित्नवमातेव द्वयोरपि महामुने।
नैकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्य पराजयम्।।
12-81-11a
12-81-11b
ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयदर्शनात्।
वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा।।
12-81-12a
12-81-12b
नारद उवाच। 12-81-13x
आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाम्यन्तराश्च ह।
प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वाऽन्यतः।।
12-81-13a
12-81-13b
सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत्कृच्छ्रा स्वकर्मजा।
अक्रूरभोजप्रभवा सर्वे ह्येते तदन्वयः।।
12-81-14a
12-81-14b
अर्थहेतोर्हि कामाद्वा वीरबीभत्सयाऽपि वा।
आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम्।।
12-81-15a
12-81-15b
कृतमूलमिदानीं तद्राजशब्दसहायवत्।
न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव स्वयम्।।
12-81-16a
12-81-16b
बभ्रूग्रसेनतो राज्यं नाप्नुं शक्यं कथंचन।
ज्ञातिभेदभयात्कृष्ण त्वया चापि विशेषतः।।
12-81-17a
12-81-17b
तच्च सिध्येत्प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
महाक्षयं व्ययो वा स्याद्विनाशो वा पुनर्भवेत्।।
12-81-18a
12-81-18b
अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा।
जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृदज्यानुमृज्य च।।
12-81-19a
12-81-19b
वासुदेव उवाच। 12-81-20x
अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्।
येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च।।
12-81-20a
12-81-20b
नारद उवाच। 12-81-21x
शक्त्याऽन्नदानं सततं तितिक्षाऽऽर्जवमार्दवम्।
यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम्।।
12-81-21a
12-81-21b
ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लधूनि च।
गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्य मनांसि च।।
12-81-22a
12-81-22b
नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान्।
महतीं धुरमादाय समुद्यम्योरसा वहेत्।।
12-81-23a
12-81-23b
सर्व एव गुरुं भारमनङ्वान्वहते समे।
दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम्।।
12-81-24a
12-81-24b
भेदाद्विनाशः सङ्घानां सङ्घमुख्योऽसि केशव।
यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं सङ्घस्तथा कुरु।।
12-81-25a
12-81-25b
नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्।
नान्यत्र धनसन्त्यागाद्गुणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते।।
12-81-26a
12-81-26b
धन्यं यशस्यमायुष्वं स्वपक्षोद्भावनं सदा।
ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु।।
12-81-27a
12-81-27b
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो।
षाङ्गुण्यस्य विधानेन यात्रा यानविधौ तथा।।
12-81-28a
12-81-28b
यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः।
त्वय्यायत्ता महाबाहो लोका लोकेश्वराश्च ये।।
12-81-29a
12-81-29b
उपासन्ते हि त्वद्बुद्धिमृषयश्चापि माधव।
त्वं गुरुः सर्वभूतानां जानीषे त्वं परां गतिम्।।
12-81-30a
12-81-30b
त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठमेधन्ते वादवाः सुखम्।। 12-81-31a
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81।।

12-81-1 अग्राह्यके वशीकर्तुमशक्ये।। 12-81-6 वाशब्द इवार्थः।। 12-81-9 ते यस्य पक्षे न स्युः स नस्यान्नश्येदेव। यस्य पक्षे ते स्युस्तत् तस्मात् कृत्स्नं फलं प्राप्नोतीति शेषः।। 12-81-11 कितवमातेव कितवयोर्द्यूतकारिणोरेका मातेव।। 12-81-13 अन्यतः बाह्याः आपदः स्वकृताः ज्ञातिकृताः अन्तरा आपदः।। 12-81-14 एते संकर्षणादयः। तदन्वथा अक्रूरान्वयाः।। 12-81-15 तत्र हेतुरर्थेति। तत्स्नेहप्रभवा इयं तव आपदिति सार्धः। स्वकर्मजेत्युक्तं तद्विवृणोति आत्मनेति सार्धेन। अन्यत्र आहुके।। 12-81-16 ज्ञातिशब्दं सहायवन् इति झ. पाठः। तत्र तत् ऐश्वर्यं कृतमूलं यतो ज्ञातिशब्दं ज्ञातित्वादनुच्छेदनीयमित्यर्थः।। 12-81-18 तच्च राज्यस्य पुनरादानं च।।

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