महाभारतम्-12-शांतिपर्व-081
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कृष्णनारदसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-81-1x |
एवमग्राह्यके तस्मिञ्ज्ञातिसंबन्धिमण्डले। मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते।। | 12-81-1a 12-81-1b |
भीष्म उवाच। | 12-81-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। संवादं वासुदेवस्य महर्षेर्नारदस्य च।। | 12-81-2a 12-81-2b |
वासुदेव उवाच। | 12-81-3x |
नासुहृत्परर्म मन्त्रं नारदार्हति वेदितुम्। अपण्डितो वाऽपि सुहृत्पण्डितो वाप्यनात्मवान्।। | 12-81-3a 12-81-3b |
स ते सौहृदमास्थाय किंचिद्वक्ष्यामि नारद। कृत्स्नां बुद्धिं च ते प्रेक्ष्य संपृच्छे त्रिदिवङ्गम।। | 12-81-4a 12-81-4b |
दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम्। अर्धंभोक्ताऽस्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे।। | 12-81-5a 12-81-5b |
अरणीमग्निकामो वा मथ्नाति दहृयं मम। वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मां दहति नित्यदा।। | 12-81-6a 12-81-6b |
बलं सङ्कर्षणे नित्यं सौकुमार्यं पुनर्गदे। रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद।। | 12-81-7a 12-81-7b |
अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरासदाः। नित्योत्थानेन संपन्ना नारदान्धकवृष्णयः।। | 12-81-8a 12-81-8b |
यस्य न स्युर्न वै स स्याद्यस्य स्युः कृत्स्नमेव तत्। द्वयोरेनं प्रचरतोर्वृणोम्येकरतं न च।। | 12-81-9a 12-81-9b |
स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः। यस्य चापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः।। | 12-81-10a 12-81-10b |
सोऽहं कित्नवमातेव द्वयोरपि महामुने। नैकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्य पराजयम्।। | 12-81-11a 12-81-11b |
ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयदर्शनात्। वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा।। | 12-81-12a 12-81-12b |
नारद उवाच। | 12-81-13x |
आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाम्यन्तराश्च ह। प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वाऽन्यतः।। | 12-81-13a 12-81-13b |
सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत्कृच्छ्रा स्वकर्मजा। अक्रूरभोजप्रभवा सर्वे ह्येते तदन्वयः।। | 12-81-14a 12-81-14b |
अर्थहेतोर्हि कामाद्वा वीरबीभत्सयाऽपि वा। आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम्।। | 12-81-15a 12-81-15b |
कृतमूलमिदानीं तद्राजशब्दसहायवत्। न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव स्वयम्।। | 12-81-16a 12-81-16b |
बभ्रूग्रसेनतो राज्यं नाप्नुं शक्यं कथंचन। ज्ञातिभेदभयात्कृष्ण त्वया चापि विशेषतः।। | 12-81-17a 12-81-17b |
तच्च सिध्येत्प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। महाक्षयं व्ययो वा स्याद्विनाशो वा पुनर्भवेत्।। | 12-81-18a 12-81-18b |
अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा। जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृदज्यानुमृज्य च।। | 12-81-19a 12-81-19b |
वासुदेव उवाच। | 12-81-20x |
अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्। येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च।। | 12-81-20a 12-81-20b |
नारद उवाच। | 12-81-21x |
शक्त्याऽन्नदानं सततं तितिक्षाऽऽर्जवमार्दवम्। यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम्।। | 12-81-21a 12-81-21b |
ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लधूनि च। गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्य मनांसि च।। | 12-81-22a 12-81-22b |
नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान्। महतीं धुरमादाय समुद्यम्योरसा वहेत्।। | 12-81-23a 12-81-23b |
सर्व एव गुरुं भारमनङ्वान्वहते समे। दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम्।। | 12-81-24a 12-81-24b |
भेदाद्विनाशः सङ्घानां सङ्घमुख्योऽसि केशव। यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं सङ्घस्तथा कुरु।। | 12-81-25a 12-81-25b |
नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्। नान्यत्र धनसन्त्यागाद्गुणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते।। | 12-81-26a 12-81-26b |
धन्यं यशस्यमायुष्वं स्वपक्षोद्भावनं सदा। ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु।। | 12-81-27a 12-81-27b |
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो। षाङ्गुण्यस्य विधानेन यात्रा यानविधौ तथा।। | 12-81-28a 12-81-28b |
यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः। त्वय्यायत्ता महाबाहो लोका लोकेश्वराश्च ये।। | 12-81-29a 12-81-29b |
उपासन्ते हि त्वद्बुद्धिमृषयश्चापि माधव। त्वं गुरुः सर्वभूतानां जानीषे त्वं परां गतिम्।। | 12-81-30a 12-81-30b |
त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठमेधन्ते वादवाः सुखम्।। | 12-81-31a |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81।। |
12-81-1 अग्राह्यके वशीकर्तुमशक्ये।। 12-81-6 वाशब्द इवार्थः।। 12-81-9 ते यस्य पक्षे न स्युः स नस्यान्नश्येदेव। यस्य पक्षे ते स्युस्तत् तस्मात् कृत्स्नं फलं प्राप्नोतीति शेषः।। 12-81-11 कितवमातेव कितवयोर्द्यूतकारिणोरेका मातेव।। 12-81-13 अन्यतः बाह्याः आपदः स्वकृताः ज्ञातिकृताः अन्तरा आपदः।। 12-81-14 एते संकर्षणादयः। तदन्वथा अक्रूरान्वयाः।। 12-81-15 तत्र हेतुरर्थेति। तत्स्नेहप्रभवा इयं तव आपदिति सार्धः। स्वकर्मजेत्युक्तं तद्विवृणोति आत्मनेति सार्धेन। अन्यत्र आहुके।। 12-81-16 ज्ञातिशब्दं सहायवन् इति झ. पाठः। तत्र तत् ऐश्वर्यं कृतमूलं यतो ज्ञातिशब्दं ज्ञातित्वादनुच्छेदनीयमित्यर्थः।। 12-81-18 तच्च राज्यस्य पुनरादानं च।।
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