महाभारतम्-12-शांतिपर्व-244
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मतभेदयुगधर्मभेदादिप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-244-1x |
एषा पूर्वतरा वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते। ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन्सर्वत्र सिद्ध्यति।। | 12-244-1a 12-244-1b |
तत्र चेन्न भवेदेवं संशयः कर्मनिश्चये। किंतु कर्मस्वभावोऽयं ज्ञानं कर्मेति वा पुनः।। | 12-244-2a 12-244-2b |
तत्र वेदविवित्सायां ज्ञानं चेत्पुरुषं प्रति। उपपत्त्युपलब्धिभ्यां वर्णयिष्यामि तच्छॄणु।। | 12-244-3a 12-244-3b |
पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः। दैवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः।। | 12-244-4a 12-244-4b |
पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः। त्रयमेतत्पृथग्भूतमविवेकं तु केचन।। | 12-244-5a 12-244-5b |
एतदेवं च नैवं न च चोभे नानुभे तथा। कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्वस्थाः समदर्शिनः।। | 12-244-6a 12-244-6b |
त्रेतायां द्वापरे चैव कलिजाश्च ससंशयाः। तपस्विनः प्रशान्ताश्च सत्वस्थाश्च कृते युगे।। | 12-244-7a 12-244-7b |
अपृथग्दर्शनाः सर्वे ऋक्सामसु यजुःषु च। कामद्वषौ पृथग्दृष्ट्वा तपः कृत उपासते।। | 12-244-8a 12-244-8b |
तपोधर्मेण संयुक्तस्तपोनित्यः सुसंशितः। तेन सर्वानवाप्नोति कामान्यान्मनसेच्छति।। | 12-244-9a 12-244-9b |
तपसा तदवाप्नोति यद्भूतं सृजते जगत्। तद्भूतश्च ततः सर्वभूतानां भवति प्रभुः।। | 12-244-10a 12-244-10b |
तदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः। वेदान्तेषु पुनर्व्यक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते।। | 12-244-11a 12-244-11b |
आरम्भयज्ञाः क्षव्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः। परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञा द्विजातयः।। | 12-244-12a 12-244-12b |
परिनिष्ठितकार्यो हि स्वाध्यायेन द्विजो भवेत्। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।। | 12-244-13a 12-244-13b |
त्रेतादौ सकला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा। संरोधादायुषस्त्वेते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे।। | 12-244-14a 12-244-14b |
द्वापरे विप्लवं यान्ति वेदाः कलियुगे तथा। दृश्यन्ते नापि दृश्यन्ते कलेरन्ते पुनः किल।। | 12-244-15a 12-244-15b |
उत्सीदन्ति स्वधर्माश्च तत्राधर्मेण पीडिताः। गवां भूमेश्च ये चापामोषधीनां च ये रसाः।। | 12-244-16a 12-244-16b |
अधर्मान्तर्हिता वेदा वेदधर्मास्तथाऽऽश्रमाः। विक्रियन्ते स्वधर्माश्च स्थावराणि चराणि च।। | 12-244-17a 12-244-17b |
यथा सर्वाणि भूतानि वृष्टथा तृप्यन्ति प्रावृषि। सृजन्ते सर्वतोऽङ्गानि तथा वेदा युगेयुगे।। | 12-244-18a 12-244-18b |
विहितं कालनानात्वमनादिनिधनं च यत्। कीर्तितं यत्पुरस्तात्ते यतः संयान्ति च प्रजाः।। | 12-244-19a 12-244-19b |
यच्चेदं प्रभवः स्थानं भूतानां संयमो यमः। स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वसृष्टानि भूरिशः।। | 12-244-20a 12-244-20b |
सर्गः कालो धृतिर्वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्। एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 12-244-21a 12-244-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244।। |
12-244-5 इति क्रमेण मीमांसकस्य दैवज्ञस्य शून्यवादिलोकायतयोश्च मतान्युपन्यस्यैतेषांष। विकल्पसमुच्चयावाह पौरुषमिति। पौरुषं दैवं न कर्म दृष्टादृष्टयत्नः। स्वभावमनुसृत्य कर्मकालौ फलदावित्यर्थः। अविवेकं समुच्चयम्। पृथग्भूतमेकमेव प्रधानं नत्वितरावित्यर्थः।। 12-244-6 आर्हतमत आह एतदिति। एवमेतन्न चाप्येवमुभे एवं नचाप्युभे इति ध. पाठः।। 12-244-10 सत्यं तपश्च भूतानां सर्वेषां भवति प्रभुरिति थ. पाठः। स, तद्रूपश्च सर्वेषां भूतानां भवति प्रभुरिति ध. पाठः।। 12-244-21 धर्मः काल इति ध. पाठः।।
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