महाभारतम्-12-शांतिपर्व-301
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तपःप्रशंसादिपरपराशरगीतनुवादः।। 1।।
पराशर उवाच। | 12-301-1x |
एष धर्मविधिस्तात गृहस्थस्य प्रकीर्तितः। तपोविधिं तु वक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु।। | 12-301-1a 12-301-1b |
प्रायेण च गृहस्थस्य ममत्वं नाम जायते। सङ्गागतं नरश्रेष्ठ भावै राजसतामसैः।। | 12-301-2a 12-301-2b |
गृहाण्याश्रित्य गावश्च क्षेत्राणि च धनानि च। दाराः पुत्राश्च भृत्याश्च भवन्तीह नरस्य वै।। | 12-301-3a 12-301-3b |
एवं तस्य प्रवृत्तस्य नित्यमेवानुपश्यतः। रागद्वेषौ विवर्धेते ह्यनित्यत्वमपश्यतः।। | 12-301-4a 12-301-4b |
रागद्वेषाभिभूतं च नरं द्रव्यवशानुगम्। मोहजस्तारतिर्नाम समुपैति नराधिप।। | 12-301-5a 12-301-5b |
कृतार्थ भोगिनं मत्वा सर्वो रतिपरायणः। लाभं प्रात्यसुखादन्यं रतितो नानुपश्यति।। | 12-301-6a 12-301-6b |
ततो लोभाभिभूतात्मा सङ्गाद्वधर्यते जनम्। दुष्टार्थं चैव तस्येह जनस्यार्थं चिकीर्षति।। | 12-301-7a 12-301-7b |
स जानत्रपि चाकार्यमर्थार्थं सेवते नरः। बालस्नेहपरीतात्मा तत्क्षयाच्चानुतप्यते।। | 12-301-8a 12-301-8b |
ततो दानेन संपन्नो रक्षन्नात्मपराजयम्। करोति येन भोनी स्यामिति तस्माद्विनश्यति।। | 12-301-9a 12-301-9b |
तद्यदि वुद्धियुक्तानां शाश्वतं ब्रह्मवादिनाम्। अभिच्छतां शुभं कर्म नराणां त्यजतां सुखम्।। | 12-301-10a 12-301-10b |
लोकायतननाशाच्च धननाशाच्च पार्थिव। आधिव्याधिप्रतापाच्च निर्वेदमुपगच्छति।। | 12-301-11a 12-301-11b |
निर्वेदादात्मसंबोधः संबोधादात्मदर्शनम्। शास्त्रार्थदर्शनाद्राजसंस्तप एवानुपश्यति।। | 12-301-12a 12-301-12b |
दुर्लभो हि मनुष्येन्द्र नरः प्रत्यवमर्शवान्। यो वै प्रियसुखे क्षीणे तपः कर्तुं व्यवस्यति।। | 12-301-13a 12-301-13b |
तपः सर्वगतं तात हीनस्यापि विधीयते। जितेन्द्रियस्य दान्तस्य स्वर्गमार्गप्रवर्तकम्।। | 12-301-14a 12-301-14b |
प्रजापतिः प्रजाः पूर्वमसृजत्तपसा विभुः। क्वचित्क्वचिद्ब्रतपरो व्रतान्यास्थाय पार्थिव।। | 12-301-15a 12-301-15b |
आदित्या वसवो रुद्रास्तथैवाग्न्यश्विमारुताः। विश्वेदेवास्तथा साध्याः पितरोऽथ मरुद्गणाः।। | 12-301-16a 12-301-16b |
यक्षराक्षसगन्धर्वाः सिद्धाश्चान्ये दिवौकसः। संसिद्धास्तपसा तात ये चान्ये स्वर्गवासिनः।। | 12-301-17a 12-301-17b |
ये चादौ ब्राह्मणाः सृष्टा ब्रह्मणा तपसा पुरा। ते भावयन्तः पृथिवीं विचरन्ति दिवं तथा।। | 12-301-18a 12-301-18b |
मर्त्यलोके च राजानो ये चान्ये गृहमेधिनः। महाकुलेषु दृश्यन्ते तत्सर्वं तपसः फलम्।। | 12-301-19a 12-301-19b |
कौशेयानि च वस्त्राणि शुभान्याभरणानि च। वाहनासनपानानि तत्सर्वं तपसः फलम्।। | 12-301-20a 12-301-20b |
मनोनुकूलाः प्रमदा रूपवत्यः सहस्रशः। वासः प्रासादपृष्ठे च तत्सर्वं तपसः फलम्।। | 12-301-21a 12-301-21b |
शयनानि च मुख्यानि भोज्यानि विविधानि च। अभिप्रेतानि सर्वाणि भवन्ति शुभकर्मिणाम्।। | 12-301-22a 12-301-22b |
नाप्राप्यं तपसः किंचिन्त्रैलोक्येऽपि परंतप। उपभोगपरित्यागः फलान्यकृतकर्मणाम्।। | 12-301-23a 12-301-23b |
सुखितो दुःखितो वाऽपि नरो लोभं परित्यजेत्। अवेक्ष्य मनसा शास्त्रं बुद्ध्या च नृपसत्तम।। | 12-301-24a 12-301-24b |
असंतोषोऽसुखथायेति लोभादिन्द्रियविभ्रमः। ततोऽस्य नश्यति प्रज्ञा विद्येवाभ्यासवर्जिता।। | 12-301-25a 12-301-25b |
नष्टप्रज्ञो यदा तु स्यात्तदा न्यायं न पश्यति। तस्मात्सुखक्षये प्राप्ते पुमानुग्रतपश्चरेत्।। | 12-301-26a 12-301-26b |
यदिष्टं तत्सुखं प्राहुर्द्वेष्यं दुःखमिहेष्यते। कृताकृतस्य तपसः फलं पश्यस्व यादृशम्।। | 12-301-27a 12-301-27b |
नित्यं भद्राणि पश्यन्ति विषयांश्चोपभुञ्जते। प्राकाश्यं चैवं गच्छन्ति कृत्वा निष्कल्मषं तपः।। | 12-301-28a 12-301-28b |
अप्रियाण्यवमानाश्च दुःखं बहुविधात्मकम्। फलार्थी सत्पथं त्यक्त्वा प्राप्नोति विषयात्मकम्।। | 12-301-29a 12-301-29b |
धर्मे तपसि दाने च विचिकित्साऽस्य जायते। स कृत्वा पापकान्येव निरयं प्रतिपद्यते।। | 12-301-30a 12-301-30b |
सुखे तु वर्तमानो वै दुःखे वाऽपि नरोत्तम्। सुवृत्ताद्यो न चलते शास्त्रचक्षुः स मानवः।। | 12-301-31a 12-301-31b |
इषुप्रपातमात्रं हि स्पर्शयोगे रतिः स्मृता। रसने दर्शने घ्राणे श्रवणे च विशांपते।। | 12-301-32a 12-301-32b |
ततोऽस्य जायते तीव्रा वेदना तत्क्षयात्पुनः। बुधा ये न प्रशंसन्ति मोक्षं सुखमनुत्तमम्।। | 12-301-33a 12-301-33b |
ततः फलार्थं सर्वस्य भवन्ति ज्यायसे गुणाः। धर्मवृद्ध्या च सततं कामार्थाभ्यां न हीयते।। | 12-301-34a 12-301-34b |
अप्रयत्नागताः सेव्या गृहस्थैर्विषयाः सदा। प्रयत्नेनोपगम्यश्च स्वधर्म इति मे मतिः।। | 12-301-35a 12-301-35b |
मानिनां कुलजातानां नित्यं शास्त्रार्थचक्षुषाम्। क्रियाधर्मविमुक्तानामशक्त्या संवृतात्मनाम्।। | 12-301-36a 12-301-36b |
क्रियमाणं यदा कर्म नाशं गच्छति मानुषम्। तेषां नान्यदृते लोके तपसः कर्म विद्यते।। | 12-301-37a 12-301-37b |
सर्वात्मनाऽनुकुर्वीत गृहस्थः कर्मनिश्चयम्। दाक्ष्येण हव्यकव्यार्थं स्वधर्मे विचरन्नृप।। | 12-301-38a 12-301-38b |
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। एवमाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।। | 12-301-39a 12-301-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 301।। |
12-301-2 समाण्यं नरश्रेहेति ध. पाठः।। 12-301-6 भोगिनं आत्मानमिति शेषः। रत्यर्थं च धनं त्यक्त्वा स वै रतिपरायण इति ध. पाठः।। 12-301-7 पुष्ठार्थं चेह देहस्येति ध. पाठः।। 12-301-10 तपसा सिद्धियुक्तानां शाश्वतं द्रहादर्शनम् इति थ. ध. पाठः।। 12-301-12 संबोधाच्छास्रदर्शनमिति ध. पाठः।। 12-301-14 तपः स्वर्गफलं तातेति थ. पाठः।। स्वर्गमार्गप्रदर्शकमिति ट. थ. पाठः।। 12-301-15 क्वचिद्द्वह्यपर इति झ. पाठः।।
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