महाभारतम्-12-शांतिपर्व-340
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शुकेन कैलासशिखरादन्तरिक्षोत्पतनम्।। 1।।
शुकेनात्मानमवलोकयतो देवान्प्रति व्यासेन शुकेत्याक्रोशे तंप्रतिप्रतिवचनचोदना।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-340-1x |
गिरिशृङ्गं समारुह्य सुतो व्यासस्य भारत। समे देशे विविक्ते स निःशलाक उपाविशत्।। | 12-340-1a 12-340-1b |
धारयामास चात्मानं यथाशास्त्रं यथाविधि। पादप्रभृतिगात्रेषु क्रमेण क्रमयोगवित्।। | 12-340-2a 12-340-2b |
ततः स प्राङ्भुखो विद्वानादित्ये नाचिरोदिते। पाणिपादं समाधाय विनीतवदुपाविशत्।। | 12-340-3a 12-340-3b |
न तत्र पक्षिसंपातो न शब्दो नापि दर्शनम्। यत्र वैयासकिर्धीमान्योक्तुं समुपचक्रमे।। | 12-340-4a 12-340-4b |
स ददर्श तदाऽऽत्मानं सर्वसङ्गविनिःसृतम्। प्रजहास ततो हासं शुकः संप्रेक्ष्य तत्परम्।। | 12-340-5a 12-340-5b |
स पुनर्योगमास्थाय मोक्षमार्गोपलब्धये। महायोगेश्वरो भूत्वा सोऽत्यक्रामद्विहायसम्।। | 12-340-6a 12-340-6b |
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा देवर्षि नारदं ततः। निवेदयामास च तं स्वं योगं परमर्षये।। | 12-340-7a 12-340-7b |
शुक उवाच। | 12-340-8x |
दृष्टो मार्गः प्रवृत्तोस्मि स्वस्ति तेऽस्तु तपोधन। त्वत्प्रसादाद्गमिष्यामि गतिमिष्टां महाद्युते।। | 12-340-8a 12-340-8b |
नारदेनाभ्यनुज्ञातः शुको द्वैपायनात्मजः। अभिवाद्य पुनर्योगमास्थायाकाशमाविशत्।। | 12-340-9a 12-340-9b |
कैलासपृष्ठादुत्पत्य स पपात दिवं तदा। अन्तरिक्षचरः श्रीमान्व्यासपुत्रः सुनिश्चितः।। | 12-340-10a 12-340-10b |
तमुद्यन्तं द्विजश्रेष्ठं वैनतेयसमद्युतिम्। ददृशुः सर्वभूतानि मनोऽमारुतरंहसम्।। | 12-340-11a 12-340-11b |
व्यवसायेन लोकांस्त्रीन्सर्वान्सोऽथ विचिन्तयन्। आस्थितो दिव्यमध्वानं पावकार्कसमप्रभः।। | 12-340-12a 12-340-12b |
तमेकमनसं यान्तमव्यग्रमकुतोभयम्। ददृशुः सर्वभूतानि जङ्गमानीतराणि च।। | 12-340-13a 12-340-13b |
यथाशक्ति यथान्यायं पूजयांचक्रिरे तदा। पुष्पवर्षेश्च दिव्यैस्तमलंचक्रुर्दिवौकसः।। | 12-340-14a 12-340-14b |
तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे गन्धर्वाप्सरसां गणाः। ऋषयश्चैव संसिद्धाः परं विस्मयमागताः।। | 12-340-15a 12-340-15b |
अन्तरिक्षगतः कोऽयं तपसा सिद्धिमागतः। अधः कायोर्ध्ववक्रश्च नेत्रैः समतिवाह्यते।। | 12-340-16a 12-340-16b |
ततः परमधर्मात्मा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः। भास्करं समुदीक्षन्स प्राङ्भुखो वाग्यतोऽगमत्। शब्देनाकाशमखिलं पूरयन्निव सर्वशः।। | 12-340-17a 12-340-17b 12-340-17c |
तमापतन्तं सहसा दृष्ट्वा सर्वाप्सरोगणाः। संभ्रान्तमनसो राजन्नासन्परमविस्मिताः। पञ्चचूडाप्रभृतयो भृशमुत्फुल्ललोचनाः।। | 12-340-18a 12-340-18b 12-340-18c |
दैवतं कतमं ह्येतदुत्तमां गतिमास्थितम्। सुनिश्चितमिहायाति विमुक्तमिव निःस्पृहम्।। | 12-340-19a 12-340-19b |
ततः समभिचक्राम मलयं नाम पर्वतम्। उर्वशी पूर्वचित्तिश्च यं नित्यमुपसेवतः।। | 12-340-20a 12-340-20b |
तस्य ब्रह्मर्षिपुत्रस्य विस्मयं ययतुः परम्। अहो बुद्धिसमाधानं वेदाभ्यासरते द्विजे।। | 12-340-21a 12-340-21b |
अचिरेणैव कालेन नभश्चरति चन्द्रवत्। पितृशुश्रूषया बुद्धिं संप्राप्तोऽयमनुत्तमाम्।। | 12-340-22a 12-340-22b |
पितृभक्तो दृढतपाः पितुः सुदयितः सुतः। अनन्यमनसा तेन कथं पित्रा विसर्जितः।। | 12-340-23a 12-340-23b |
उर्वश्या वचनं श्रुत्वा शुकः परमधर्मवित्। उदैक्षत दिशः सर्वा वचने गतमानसः।। | 12-340-24a 12-340-24b |
सोऽन्तरिक्षं महीं चैव सशैलवनकाननाम्। विलोकयामास तदा सरांसि सरितस्तथा।। | 12-340-25a 12-340-25b |
ततो द्वैपायनसुतं बहुमानात्समन्ततः। कृताञ्जलिपुटाः सर्वा निरीक्षन्ते स्म देवताः।। | 12-340-26a 12-340-26b |
अब्रवीत्तास्तदा वाक्यं शुकः परमधर्मवित्। पिता यद्यनुगच्छेन्मां क्रोशमान शुकेति वै।। | 12-340-27a 12-340-27b |
तस्य प्रतिवचो देयं सर्वैरेव समाहितैः। एतन्मे स्नेहनः सर्वे वचनं कर्तुमर्हथ।। | 12-340-28a 12-340-28b |
शुकस्य वचन श्रुत्वा दिशः सजलकाननाः। समुद्राः सरितः शैलाः प्रत्यूचुस्तं समन्ततः।। | 12-340-29a 12-340-29b |
यथा ज्ञापयसे विप्र बाढमेवं भविष्यति। ऋषेर्व्याहरतो वाक्यं प्रतिवक्ष्यामहे वयम्।। | 12-340-30a 12-340-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 340।। |
12-340-1 निःशलाके निस्तृणे।। 12-340-16 अधःकायात् ऊर्ध्वं वकं यस्य। सूर्ये दत्तदृष्टिरतः स्वदेहस्याधोभागं न पश्यतीत्यर्थः।।
शांतिपर्व-339 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-341 |