महाभारतम्-12-शांतिपर्व-090
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति उचथ्यमान्धातृसंवादानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-90-1x |
यानङ्गिराः क्षत्रधर्मानुतथ्यो ब्रह्मवित्तमः। मान्धात्रे यौवनाश्चाय प्रीतिमानभ्यभाषत।। | 12-90-1a 12-90-1b |
स यथाऽनुशशासैनमुतथ्यो ब्रह्मवित्तमः। तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि निखिलेन युधिष्ठिर।। | 12-90-2a 12-90-2b |
उचथ्य उवाच। | 12-90-3x |
धर्माय राजा भवति न कामकरणाय तु। मान्धातरभिजानीहि राजा लोकस्य रक्षिता।। | 12-90-3a 12-90-3b |
राजा चरति चेद्धर्मं देवत्वायैव कल्पते। स चेदधर्मं चरति नरकायैव गच्छति।। | 12-90-4a 12-90-4b |
धर्मे तिष्ठन्ति भूतानि धर्मो राजनि तिष्ठाति। तं राजा साधु यः शास्ति स राजा श्रियमश्नुते।। | 12-90-5a 12-90-5b |
राजापराधान्मान्धातर्लक्ष्मीवान्पाप उच्यते। देवाश्च गर्हां गच्छन्ति धर्मो नास्तीति चोच्यते।। | 12-90-6a 12-90-6b |
अधर्मे वर्तमानानामर्थसिद्धिः प्रदृश्यते। तदेव मङ्गलं लोकः सर्वः समनुवर्तते।। | 12-90-7a 12-90-7b |
उच्छिद्यते धर्मवृत्तमधर्मो वर्तते महान्। भयमाहुर्दिवारात्रं यदा पापा न वार्यते।। | 12-90-8a 12-90-8b |
इदं मम इदं नेति साधूनां तात धर्मतः। न वै व्यवस्था भवति यदा पापो न वार्यते।। | 12-90-9a 12-90-9b |
नैव भार्या न पशवो न क्षेत्रं न निवेशनम्। संदृश्येत मनुष्याणां यदा पापबलं भवेत्।। | 12-90-10a 12-90-10b |
देवाः पूजां न जानन्ति न स्वधां पितरस्तदा। न पूज्यन्ते ह्यतिथयो यदा पापो न वार्यते।। | 12-90-11a 12-90-11b |
न वेदानधिगच्छन्ति व्रतवन्तो द्विजातयः। न यज्ञांस्तन्वते विप्रा यदा पापो न वार्यते।। | 12-90-12a 12-90-12b |
वध्यानामिव सत्वानां मनो भवति विह्वलम्। मनुष्याणां महाराज यदा पापो न वार्यते।। | 12-90-13a 12-90-13b |
उभौ लोकावभिप्रेक्ष्य राजानमसृजंस्तथा। मुनयोऽथ महद्भूतमयं धर्मो भविष्यति।। | 12-90-14a 12-90-14b |
यस्मिन्धर्मो विराजेत तं राजानं प्रचक्षते। यस्मिन्विलीयते धर्मस्तं देवा वृषलं विदुः।। | 12-90-15a 12-90-15b |
वृषो हि भगवान्धर्मो यस्तस्य कुरुते लयम्। वृषलं तं वीवदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्।। | 12-90-16a 12-90-16b |
धर्मे वर्धति वर्धन्ति सर्वभूतानि सर्वदा। तस्मिन्ह्रसति हीयन्ते तस्माद्धर्मं विवर्धयेत्।। | 12-90-17a 12-90-17b |
धनानि स्पौति धर्मो हि धारणाद्वेति निश्चयः। मानवान मनुष्येन्द्र स सीमान्तकरः स्मृतः।। | 12-90-18a 12-90-18b |
प्रभवार्थंमहि भूतानां धर्मः सृष्टः स्वयंभुवा। तस्मात्प्रवर्धयेद्धर्मं प्रजानुग्रहकारणात्।। | 12-90-19a 12-90-19b |
तस्माद्धि राजशार्दूल धर्मः श्रेष्ठतरः स्मृतः। स राजायः प्रजाः शास्ति साधुकृत्पुरुषर्षभ।। | 12-90-20a 12-90-20b |
कामक्रोधावनादृत्य धर्ममेवानुपालयेत्। धर्मः श्रेयस्करतमो राज्ञां भरतसत्तम।। | 12-90-21a 12-90-21b |
धर्मस्य ब्राह्मणे योनिस्तस्मात्तान्पूजयेत्सदा। ब्राह्मणानां च मान्धातः कुर्यात्कामानमत्सरी।। | 12-90-22a 12-90-22b |
तेषां ह्यकामकरणाद्राज्ञः संजायते भयम्। मित्राणि न च वर्धन्ते तथाऽमित्रीभवन्त्यपि।। | 12-90-23a 12-90-23b |
ब्राह्मणानां सदासूयन्बाल्याद्वैरोचनिर्बलिः। अथास्माच्छ्रीरपाक्रामद्याऽस्मिन्नासीत्प्रतापिनी।। | 12-90-24a 12-90-24b |
ततस्तस्मादपाक्रम्य साऽगच्छत्पाकशासनम्। अथ सोऽन्वतपत्पश्चाच्छ्रियं दृष्ट्वा पुरंदरे।। | 12-90-25a 12-90-25b |
एतत्फलमसूयाया अभिमानस्य चाभिभो। तस्माद्बुध्यस्व मान्धातर्मा त्वां जह्यात्प्रतापिनी।। | 12-90-26a 12-90-26b |
दर्पोनाम श्रियः पुत्रो जज्ञेऽधर्मादिति श्रुतिः। तेन देवासुरा राजन्नीताः सुबहवोऽव्ययम्।। | 12-90-27a 12-90-27b |
राजर्षयश्च बहवस्तथा बुध्यस्व पार्थिव। राजा भवति तं जित्वा दासस्तेन पराजितः।। | 12-90-28a 12-90-28b |
स यथा दर्पसहितमधर्मं नानुसेवते। तथा वर्तस्व मान्धातश्चिरं चेत्स्थातुमिच्छसि।। | 12-90-29a 12-90-29b |
मत्तात्प्रमत्तात्पौगण्डादुन्मत्ताच्च विशेषतः। निन्दिताच्चासदाचाराद्दुर्हृदां चापि सेवनात्।। | 12-90-30a 12-90-30b |
निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः। पर्वताद्विषमाद्दुर्गाद्धस्तिनोऽश्वात्सरीसृपात्।। | 12-90-31a 12-90-31b |
एतेभ्योऽनित्ययुक्तः स्यान्नक्तं चर्यां च वर्जयेत्। अत्याशां चाभिमानं च दम्भं क्रोधं च वर्जयेत्।। | 12-90-32a 12-90-32b |
अविज्ञातासु च स्त्रीषु क्लीबासु स्वैरिणीषु च। परभार्यासु कन्यासु नाचरेन्मैथुनं नृप।। | 12-90-33a 12-90-33b |
कुलेषु पापरक्षांसि जायन्ते वर्णसंकरात्। अपुमांसोऽङ्गहीनाश्च स्थूलजिह्वा विचेतसः।। | 12-90-34a 12-90-34b |
एते चान्ये च जायन्ते यदा राजा प्रमाद्यति। तस्माद्राज्ञा विशेषेणं वर्तितव्यं प्रजाहिते।। | 12-90-35a 12-90-35b |
क्षत्रियस्य प्रमत्तस्य दोषः संजायते महान्। अधर्माः संप्रवर्धन्ते प्रजासंकरकारकाः।। | 12-90-36a 12-90-36b |
अशीते विद्यते शीतं शीते शीतं न विद्यते। अवृष्टिरतिवृष्टिश्च व्याधिश्चाप्याविशेत्प्रजाः।। | 12-90-37a 12-90-37b |
नक्षत्राण्युपतिष्ठन्ति ग्रहा घोरास्तथागते। उत्पाताश्चात्र दृश्यन्ते बहवो राजनाशनाः।। | 12-90-38a 12-90-38b |
अरक्षितात्मा यो राजा प्रजाश्चापि न रक्षति। प्रजाश्च तस्य क्षीयन्ते ततः सोऽनु विनश्यति।। | 12-90-39a 12-90-39b |
द्वावाददाते ह्येकस्य द्वयोः सुबहवोऽपरे। कुमार्यः संप्रलुप्यन्ते तदाहुर्नृपदूषणम्।। | 12-90-40a 12-90-40b |
ममैतदिति नैतच्च मनुष्येष्ववतिष्ठति। त्यक्त्वा धर्मं यदा राजा प्रमादमनुतिष्ठित।। | 12-90-41a 12-90-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि नवतितमोऽध्यायः।। 90।। |
12-90-1 अङ्गिराः आङ्गिरसाः।। 12-90-12 न भार्यामधिगच्छन्तीति झ. पाठः।। 12-90-15 धर्मो धर्मपालः।। 12-90-16 कुरुते ह्यलमिति झ. पाठः। तत्र अलं वारणमित्यर्थः। तेन वृषं लुनाति च्छिनत्तीति वृषल इति योगो दर्शितः।। 12-90-18 धर्मपदस्य द्वेधा व्युत्पत्तिमाह धनानीति। धारणाद्वा धर्मः। सीमान्तकरः यावत्पापं तावद्यातनाकर इत्यर्थः।। 12-90-28 तं दर्पम्।। 12-90-30 पौगण्डाद्वालकादज्ञादित्यर्थः। कदम्याशादुदावर्ताद्दुर्हृदां चापीति ट. पाठः।। 12-90-32 अनित्ययुक्तः स्यात् नित्यमयुक्तः स्यादित्यर्थः। एकचर्यां च वर्जयेदिति द. पाठः।। 12-90-34 अपुमांसः क्लीबाः। स्थूलजिह्वा मूकाः।। 12-90-38 नक्षत्राणि धूमकेत्वादयः।। 12-90-40 एकस्य धनं द्वावाददाते आच्छिद्य गृह्णीतः।।
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