महाभारतम्-12-शांतिपर्व-124
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दुर्योधनाय धृतराष्ट्रप्रोक्तेन्द्रप्रह्लादकथानुवादपूर्वकं शीलस्य धर्मादिकारणत्वप्रतिपादनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-124-1x |
इमे जना मनुष्येन्द्र प्रशंसन्ति सदा भुवि। धर्मस्य शीलमेवादौ ततो मे संशयो महान्।। | 12-124-1a 12-124-1b |
यदि तच्छक्यमस्माभिर्ज्ञातुं धर्मभूतां वर। श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं यथैतदुपलभ्यते।। | 12-124-2a 12-124-2b |
कथं तत्प्राप्यते शीलं श्रोतुमिच्छामि भारत। किंलक्षणं च तत्प्रोक्तं ब्रूहि मे वदतां वर।। | 12-124-3a 12-124-3b |
भीष्म उवाच। | 12-124-4x |
पुरा दुर्योधनेनेह धृतराष्ट्राय मानद। आख्यातं तप्यमानेन श्रियं दृष्ट्वा तवागताम्।। | 12-124-4a 12-124-4b |
इन्द्रप्रस्थे महाराज तव सभ्रातृकस्य ह। सभायां चापहसनं तत्सर्वं शृणु भारत।। | 12-124-5a 12-124-5b |
भवतस्तां सभां दृष्ट्वा समृद्धिं चाप्यनुत्तमाम्। दुर्योधनस्तदा दीनः सर्वं पित्रे न्यवेदयत्।। | 12-124-6a 12-124-6b |
श्रुत्वा हि धृतराष्ट्रश्च दुर्योधनवचस्तदा। अब्रवीत्कर्णसहितं दुर्योधनमिदं वचः।। | 12-124-7a 12-124-7b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 12-124-8x |
किमर्थं तप्यसे पुत्र श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। श्रुत्वा त्वामनुनेष्यामि यदि सम्यग्भविष्यति।। | 12-124-8a 12-124-8b |
यदा त्वां महदैश्वर्यं प्राप्तं परपुरंजय। किंकरा भ्रातरः सर्वे मित्रसंबन्धिबान्धवाः।। | 12-124-9a 12-124-9b |
आच्छादयसि प्रावारानश्नासि पिशितौदनम्। आजानेया वहन्ति त्वां कस्माच्छेचसि पुत्रक।। | 12-124-10a 12-124-10b |
दुर्योधन उवाच। | 12-124-11x |
दश तात सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम्। भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर्युधिष्ठिरनिवेशने।। | 12-124-11a 12-124-11b |
दृष्ट्वा च तां सभां दिव्यपुष्पफलान्विताम्। अश्वांस्तित्तिरकल्माषान्रत्नानि विविधानि च।। | 12-124-12a 12-124-12b |
दृष्ट्वा तां पाण्डवेयानामृद्धिमिन्द्रोपमां शुभाम्। अमित्राणां सुमहतीमनुशोचामि मानद।। | 12-124-13a 12-124-13b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 12-124-14x |
यदीच्छसि श्रियं तात यादृशी सा युधिष्ठिरे। विशिष्टां वा नरश्रेष्ठ शीलवान्भव पुत्रक।। | 12-124-14a 12-124-14b |
शीलेन हि त्रयो लोकाः शक्या जेतुं न संशयः। न हि किंचिदसाध्यंवै लोके शीलवतां सताम्।। | 12-124-15a 12-124-15b |
एकरात्रेण मान्धाता त्र्यहेण जनमेजयः। सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिवान्।। | 12-124-16a 12-124-16b |
एते हि पार्थिवाः सर्वे शीलवन्तो यशोन्विताः। ततस्तेषां गुणक्रीता वसुधा स्वयमागता।। | 12-124-17a 12-124-17b |
दुर्योधन उवाच। | 12-124-18x |
कथं तत्प्राप्यते शीलं श्रोतुमिच्छामि भारत। येन शीलेन संप्राप्ताः क्षिप्रमेव वसुंधराम्।। | 12-124-18a 12-124-18b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 12-124-19x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नारदेन पुरा वृत्तं शीलमाश्रित्य भारत।। | 12-124-19a 12-124-19b |
प्रा--देन हृतं राज्यं महेन्द्रस्य महात्मनः। श---माश्रित्य दैत्येन त्रैलोक्यं च वशे कृतम्।। | 12-124-20a 12-124-20b |
त--बृहस्पतिं शक्रः प्राञ्जलिः समुपस्थितः। तमुवाच महाप्राज्ञः श्रेय इच्छामि वेदितुम्।। | 12-124-21a 12-124-21b |
ततो बृहस्पतिस्तस्मै ज्ञानं नैश्रेयसं परम्। कथयामास भगवान्देवेन्द्राय कुरूद्वह।। | 12-124-22a 12-124-22b |
एतावच्छ्रेय इत्येव बृहस्पतिरभाषत। इन्द्रस्तु भूयः पप्रच्छ को विशेषो भवेदिति।। | 12-124-23a 12-124-23b |
बृहस्पतिरुवाच। | 12-124-24x |
विशेषोऽस्ति महांस्तात भार्गवस्य महात्मनः। तत्रागमय भद्रं ते भूय एव सुरोत्तम।। | 12-124-24a 12-124-24b |
आत्मनस्तु ततः श्रेयो भार्गवः सुमहायशाः। ज्ञानमागमयत्प्रीत्या पुनः स परमद्युतिः।। | 12-124-25a 12-124-25b |
तेनापि समनुज्ञातो भार्गवेण महात्मना। श्रेयोऽस्तीति परं भूयः शुक्रमाह शतक्रतुः।। | 12-124-26a 12-124-26b |
भार्गवस्त्वाह सर्वज्ञः प्रह्लादस्य महात्मनः। ज्ञानमस्ति विशेषेणेत्युक्तो हृष्टश्च सोऽभवत्।। | 12-124-27a 12-124-27b |
स तत्र ब्राह्मणो भूत्वा प्रह्लादं पाकशासनः। स्तुत्वा प्रोवाच मेधावी श्रेय इच्छामि वेदितुम्।। | 12-124-28a 12-124-28b |
प्रह्लादस्त्वब्रवीद्विप्रं क्षणो नास्ति द्विजोत्तम। त्रैलोक्यराज्यसक्तस्य ततो नोपदिशामि ते।। | 12-124-29a 12-124-29b |
ब्राह्मणस्त्वब्रवीद्राजन्यस्मिन्काले क्षणो भवेत्। तदोपादेष्टुमिच्छामि यदि कार्यान्तरं भवेत्।। | 12-124-30a 12-124-30b |
ततः प्रीतोऽभवद्राजा प्रह्वादो ब्रह्मवादिनः। तथेत्युक्त्वा ददौ काले ज्ञानतत्त्वं द्विजे तदा।। | 12-124-31a 12-124-31b |
ब्राह्मणोऽपि यथान्यायं गुरुवृत्तिमनुत्तमाम्। चकार सर्वभावेन यद्यच्च मनसेच्छति।। | 12-124-32a 12-124-32b |
पृष्टश्च तेन बहुशः प्राप्तं कथमरिंदम्। त्रैलोक्यराज्यं धर्मज्ञ कारणं तद्ब्रवीहि मे। [प्रह्लादोऽपि महाराज ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत्।।] | 12-124-33a 12-124-33b 12-124-33c |
प्रह्लाद उवाच। | 12-124-34x |
नासूयामि द्विजान्विप्र राजास्मीति कथंचन। काम्यानि वदतां तेषां संयच्छामि वहामि च।। | 12-124-34a 12-124-34b |
ते विस्रब्धाः प्रभाषन्ते संयच्छन्ति च मां सदा। तेषां कार्यपथे युक्तं शुश्रूषुमनहंकृतम्।। | 12-124-35a 12-124-35b |
धर्मात्मानं जितक्रोधं नियतं संयतेन्द्रियम्। समासिञ्चन्ति शास्त्रज्ञाः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः।। | 12-124-36a 12-124-36b |
सोऽहं वागग्रविद्यानां रसानामवलेहिता। स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः।। | 12-124-37a 12-124-37b |
एतत्पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम्। यद्ब्राह्मणमुखे हव्यमेतच्छ्रुत्वा प्रवर्तते।। | 12-124-38a 12-124-38b |
एतावच्छेय इत्याह प्रह्लादो ब्रह्मवादिनम्। शुश्रूषितस्तेन तदा दैत्येन्द्रो वाक्यमब्रवीत्।। | 12-124-39a 12-124-39b |
यथावद्गुरुवृत्त्या ते प्रीतोऽस्मि द्विजसत्तम। वरं वृणीष्व भद्रं ते प्रदाताऽस्मि न संशयः।। | 12-124-40a 12-124-40b |
कृतमित्येव दैत्येन्द्रमुवाच द्विजसत्तमः। प्रह्लादस्त्वब्रवीत्प्रीतो गृह्यतां वर इत्युत।। | 12-124-41a 12-124-41b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-124-42x |
यदि राजन्प्रसन्नस्त्वं मम चेदिच्छसि प्रियम्। भवतः शीलमिच्छामि प्राप्नुमेष वरो मम।। | 12-124-42a 12-124-42b |
ततः प्रीतस्तु दैत्येन्द्रो भयमस्याभवन्महत्। वरे प्रदिष्टे विप्रेण नाल्पचेतायमित्युत।। | 12-124-43a 12-124-43b |
एवमस्त्विति स प्राह प्रह्लादो विस्मितस्तदा। उपाकृत्य तु विप्राय वरं दुःखान्वितोऽभवत्।। | 12-124-44a 12-124-44b |
दत्ते वरे गते विप्रे चिन्ताऽसीन्महती तदा। प्रह्लादस्य महाराज निश्चयं न च जग्मिवान्।। | 12-124-45a 12-124-45b |
तस्य चिन्तयतस्तावच्छायाभूतं महाद्युतेः। तेजोविग्रहवत्तात शरीरमजहात्तदा।। | 12-124-46a 12-124-46b |
तमपृच्छन्महाराजः प्रह्लादः को भवानिति। प्रत्याह तं तु शीलोस्मि त्यक्तो गच्छाम्यहं त्वया।। | 12-124-47a 12-124-47b |
तस्मिन्द्विजोत्तमे राजन्वत्स्याम्यहमरिंदम। योऽसौ शिष्यत्वमागम्य त्वयि नित्यं समाहितः। इत्युक्त्वाऽन्तर्हितं तद्वै शक्रं चान्वाविशत्प्रभो।। | 12-124-48a 12-124-48b 12-124-48c |
तस्मिंस्तेजसि याते तु तादृग्रूपस्ततोपरः। शरीरान्निः सृतस्तस्य को भवानिति सोब्रवीत्।। | 12-124-49a 12-124-49b |
धर्मं प्रह्लाद मां विद्धि यत्रासौ द्विजसत्तमः। तत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतः शीलं ततो ह्यहम्।। | 12-124-50a 12-124-50b |
ततोऽपरो महाराज प्रज्वलन्निव तेजसा। शरीरान्निः सृतस्तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः।। | 12-124-51a 12-124-51b |
को भवानिति पृष्टश्च तमाह स महाद्युतिः। सत्यं विद्ध्यसुरेन्द्राद्य प्रयास्ये धर्ममन्वहम्।। | 12-124-52a 12-124-52b |
तस्मिन्ननुगते धर्मं पुरुषे पुरुषोऽपरः। निश्चक्राम ततस्तस्मात्पृष्टश्चाह महातपाः।। | 12-124-53a 12-124-53b |
वृत्तं प्रह्लाद मां विद्धि यतः सत्यं ततो ह्यहम्। तस्मिन्गते महाश्वेता शरीरात्तस्य निर्ययौ।। | 12-124-54a 12-124-54b |
पृष्टश्चाह बलं विद्धि यतो वृत्तमहं ततः। इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र यतो वृत्तं नराधिप।। | 12-124-55a 12-124-55b |
ततः प्रभामयी देवी शरीरात्तस्य निर्ययौ। तामपृच्छत्स दैत्येन्द्रः सा श्रीरित्येनमब्रवीत्।। | 12-124-56a 12-124-56b |
उषिताऽस्मि सुखं नित्यं त्वयि सत्यपराक्रम। त्वया युक्ता गमिष्यामि बलं ह्यनुगता ह्यहम्।। | 12-124-57a 12-124-57b |
ततो भयं प्रादुरासीत्प्रह्लादस्य महात्मनः। अपृच्छत च तां भूयः क्व यासि कमलालये।। | 12-124-58a 12-124-58b |
त्वं हि सत्यव्रता देवी लोकस्य परमेश्वरी। कश्चासौ ब्राह्मणश्रेष्ठस्तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।। | 12-124-59a 12-124-59b |
श्रीरुवाच। | 12-124-60x |
स शक्तो ब्रह्मचारी यस्त्वत्तश्चैवोपशिक्षितः। त्रैलोक्ये ते यदश्वर्यं तत्तेनापहृतं प्रभो।। | 12-124-60a 12-124-60b |
शीलेन हि त्रयो लोकास्त्वया धर्मज्ञ निर्जिताः। तद्विज्ञाय सुरेन्द्रेण तव शीलं हृतं प्रभो।। | 12-124-61a 12-124-61b |
धर्मः सत्यं तथा वृत्तं बलं चैव तथाऽप्यहम्। शीलमूला महाप्राज्ञ सदा नास्त्यत्र संशयः।। | 12-124-62a 12-124-62b |
भीष्म उवाच। | 12-124-63x |
एवमुक्त्वा गता श्रीस्तु ते च सर्वे युधिष्ठिर। दुर्योधनस्तु पितरं भूय एवाब्रवीत्तदा।। | 12-124-63a 12-124-63b |
शीलस्य तत्त्वमिच्छामि वेत्तुं कौरवनन्दन। प्राप्यते च यथा शीलं तं चोपायं ब्रवीहि मे।। | 12-124-64a 12-124-64b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 12-124-65x |
सोपायं पूर्वमुद्दिष्टं प्रह्लादेन महात्मना। संक्षेपतस्तु शीलस्य शृणु प्राप्तिं नरेश्वर।। | 12-124-65a 12-124-65b |
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत्प्रशस्यते।। | 12-124-66a 12-124-66b |
यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम्। अपत्रपेत वा येन न तत्कुर्यात्कथंचन।। | 12-124-67a 12-124-67b |
तत्तु कर्म तथा कुर्याद्येन श्लाध्येत संसदि। शीलं समासेनैतत्ते कथितं कुरुसत्तम।। | 12-124-68a 12-124-68b |
यद्यप्यशीला नृपते प्राप्नुवन्ति श्रियं क्वचित्। न भुञ्जते चिरं तात समूलाश्च पतन्ति ते।। | 12-124-69a 12-124-69b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 12-124-70x |
एतद्विदित्वा तत्त्वेन शीलवान्भव पुत्रक। यदीच्छसि श्रियं तात सुविशिष्टां युधिष्ठिरात्। `अधिकां चापि राजेन्द्र ततस्त्वं शीलवान्भवा।।' | 12-124-70a 12-124-70b 12-124-70c |
भीष्म उवाच। | 12-124-71x |
एतत्कथितवान्पुत्रे धृतराष्ट्रो महीपतिः। एतत्कुरुष्व कौन्तेय ततः प्राप्स्यसि तत्फलम्।। | 12-124-71a 12-124-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुर्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 124।। |
12-124-1 धर्मस्य कारणमिति शेषः।। 12-124-8 यदि सम्यग्भविष्यसाति द. पाठः।। 12-124-13 ऋद्धिं वैश्रवणीमिति झ. पाठः।। 12-124-22 नैश्रेयचसं मोक्षोपयोगि।। 12-124-23 को विशेषः। नैश्रेयसादपि किंश्रेय इत्यर्थः।। 12-124-37 क्षुद्राभिर्मधुमक्षिकाभिर्निर्मितं क्षौद्रं मधु। तत्र मक्षिकामध्विव मां ते शास्त्रेण सिञ्चन्ति। वागग्रविद्यानां वागग्रे एवं नतु पुस्तके विद्या येषां तेषाम्। सोऽहं वागन्त्यपुष्टानां मधूनां परिलेहितेति ड. पाठः।। 12-124-43 विप्रेण विप्राय। चेतायमिति संधिरार्षः।। 12-124-46 तेजोविग्रहवत् तेजोमयशरीरं शीलम्।। 12-124-64 शीलं समधिगच्छामीति थ. पाठः।।
शांतिपर्व-123 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-125 |