महाभारतम्-12-शांतिपर्व-299
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भीष्मेण युधिषठिरंप्रति ब्राह्मणादिवर्णधर्मादिप्रतिपादकपराशरगीतानुवादः।। 1।।
पराशर उवाच। | 12-299-1x |
वृत्तिः सकाशाद्वर्णेभ्यस्त्रिभ्यो हीनस्य शोभना। प्रीत्योपनीता निर्दिष्टा धर्मिष्ठान्कुरुते सदा।। | 12-299-1a 12-299-1b |
वृत्तिश्चेन्नास्ति शूद्रस्य पितृपैतामही ध्रुवा। न वृत्तिं परतो मार्गेच्छुश्रूषां तु प्रयोजयेत्।। | 12-299-2a 12-299-2b |
सद्भिस्तु सह संसर्गः शोभते धर्मदर्शिभिः। नित्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मतिः।। | 12-299-3a 12-299-3b |
यथोदयगिरौ द्रव्यं सन्निकर्षेण दीप्यते। तथा सत्सन्निकर्षेण हीनवर्णोऽपि दीयते।। | 12-299-4a 12-299-4b |
यादृशेन हि वर्णेन भाव्यते शुक्लमम्बरम्। तादृशं कुरुते रूपमेतदेवमवेहि मे।। | 12-299-5a 12-299-5b |
तस्माद्गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कदाचन। अनित्यमिह मर्त्यानां जीवितं हि चलाचलम्।। | 12-299-6a 12-299-6b |
सुखे वा यदि वा दुःखे वर्तमानो विचक्षणः। यश्चिनोति शुभान्येव स भद्राणीह पश्यति।। | 12-299-7a 12-299-7b |
धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्। न तत्सेवेत मेधावी न तद्धितमिहोच्यते।। | 12-299-8a 12-299-8b |
`धर्मेण सहितं यत्तु भवेदल्पफलोदयम्। तत्कार्यमविशङ्केन कर्मात्यन्तं सुखावहम्।।' | 12-299-9a 12-299-9b |
यो हृत्वा गोसहस्राणि नृपो दद्यादरक्षिता। स शब्दमात्रफलभाग्राजा भवति तस्करः।। | 12-299-10a 12-299-10b |
स्वयंभूरसृजच्चाग्रे धातारं लोकसत्कृतम्। धाताऽसृजत्पुत्रमेकं लोकानां धारणे रतम्।। | 12-299-11a 12-299-11b |
तमर्चयित्वा वैश्यस्तु कुर्यादत्यर्थमृद्धिमत्। रक्षितव्यं तु राजन्यैरुपयोज्यं द्विजातिभिः।। | 12-299-12a 12-299-12b |
अजिह्नैरशठक्रोधैर्हव्यकव्यप्रयोक्तृभिः। शूर्दैर्निर्मार्जनं कार्यमेवं धर्मो न नश्यति।। | 12-299-13a 12-299-13b |
अप्रनष्टे ततो धर्मे भवन्ति सुखिताः प्रजाः। सुखेन तासां राजेन्द्र मोदन्ते दिवि देवताः।। | 12-299-14a 12-299-14b |
तस्माद्यो रक्षति नृपः स धर्मेणेति पूज्यते। अधीते चापि यो विप्रो वैश्यो यश्चार्जने रतः।। | 12-299-15a 12-299-15b |
यश्च शुश्रूषते शूद्रः सततं नियतेन्द्रियः। अतोऽन्यथा मनुष्येन्द्र स्वधर्मात्परिहीयते।। | 12-299-16a 12-299-16b |
प्राणसंतापनिर्दिष्टाः काकिण्योऽपि महाफलाः। न्यायेनोपार्जिता दत्ताः किमुतान्याः सहस्रशः।। | 12-299-17a 12-299-17b |
सत्कृत्य हि द्विजातिभ्यो यो ददाति नराधिपः। यादृशं तादृशं नित्यमश्नाति फलमूर्जितम्।। | 12-299-18a 12-299-18b |
अभिगम्य तु यद्दत्तं धर्म्यमाहुरभिष्टुतम्। याचितेन तु यद्दत्तं तदाहुर्मध्यमं फलम्।। | 12-299-19a 12-299-19b |
अवज्ञया दीयते यत्तथैवाश्रद्धयाऽपि वा। तदाहुरधमं दानं मुनयः सत्यवादिनः।। | 12-299-20a 12-299-20b |
अतिक्रामेन्मज्जमानो विविधेन नरः सदा। तथा प्रयत्नं कुर्वीत यथा मुच्येत संशयात्।। | 12-299-21a 12-299-21b |
दमेन शोभते विप्रः क्षत्रियो विजयेन तु। धनेन वैश्यः शृद्रस्तु नित्यं दाक्ष्येण शोभते।। | 12-299-22a 12-299-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनत्रिशततमोऽध्यायः।। 299।। |
12-299-1 नित्यं हीनस्य शोभनेति ध. पाठः।। 12-299-6 तस्माद्गुणेषु रमतामिति थ. पाठः।। 12-299-7 स तन्त्राणीहेति झ. पाठः।। 12-299-10 यो धृत्वा गोसहस्राणीति झ. पाठः।। 12-299-12 कुर्यादर्थं समृद्धिष्विति ध. पाठः।। 12-299-17 काकिण्यो विंशतिवराटिकाः।। 12-299-21 तथा मुच्येत किल्विषादिति थ. पाठः।। 12-299-22 दाक्ष्येण सेवार्थोत्साहेन।।
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