महाभारतम्-12-शांतिपर्व-218
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शिष्याय गुरूक्तवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-218-1x |
निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छताचरितुं सदा। निद्रा सर्वात्मना त्याज्या स्वप्नदोषमवेक्षता।। | 12-218-1a 12-218-1b |
स्वप्ने हि रजसा देही तमसा चाभिभूयते। देहान्तरमिवापन्नश्चरत्यपगतस्मृतिः।। | 12-218-2a 12-218-2b |
ज्ञानाभ्यासाज्जागरिता जिज्ञासार्थमनन्तरम्। विज्ञानाभिनिवेशात्तु स जागर्त्यनिशं सदा।। | 12-218-3a 12-218-3b |
अत्राह कोन्वयं भावः स्वप्ने विषयवानिव। प्रलीनैरिन्द्रियैर्देही वर्तते देहवानिव।। | 12-218-4a 12-218-4b |
अत्रोच्यते यथा ह्येतद्वेद योगेश्वरो हरिः। तथैतदुपपन्नार्थं वर्णयन्ति महर्षयः।। | 12-218-5a 12-218-5b |
इन्द्रियाणां श्रमात्स्वप्नमाहुः सर्वगतं मनः। `तन्मयानीन्द्रियाण्याहुस्तावद्गच्छन्ति तानि वै।। | 12-218-6a 12-218-6b |
अत्राहुस्त्रितयं नित्यमतथ्यमिति चेच्च न। प्रथमे वर्तमानोऽसौ त्रितयं चेति सर्वदा।। | 12-218-7a 12-218-7b |
नेतरावुपसंगम्य विजानाति कथंचन। स्वप्नावस्थागतो ह्येष स्वप्न इत्येव वेत्ति च।। | 12-218-8a 12-218-8b |
तदप्यसदृशं युक्त्या त्रितयं मोहलक्षणम्। यदात्मत्रितयान्मुक्तस्तदा जानात्यसत्कृतः।।' | 12-218-9a 12-218-9b |
मनसस्त्वप्रलीनत्वात्तत्तदाहुर्निदर्शनम्। कार्ये चासक्तमनसः संकल्पो जाग्रतो ह्यपि। यद्वन्मनोरथैश्चर्यं स्वप्ने तद्वन्मनोगतम्।। | 12-218-10a 12-218-10b 12-218-10c |
संसाराणामसंख्यानां कामात्मा तदवाप्नुयात्। मनस्यन्तर्हितं सर्वं वेद सोत्तमपूरुषः।। | 12-218-11a 12-218-11b |
गुणानामपि यद्येतत्कर्मणा चाप्युपस्थितम्। तत्तच्छंसन्ति भूतानि मनो यद्भावितं यथा।। | 12-218-12a 12-218-12b |
ततस्तमुपसर्पन्ति गुणा राजसतामसाः। सात्विका वा यथायोगमानन्तर्यफलोदयम्।। | 12-218-13a 12-218-13b |
ततः पश्यन्त्यसंबन्धान्वातपित्तकफोत्तरान्। रजस्तमोभवैर्भावैस्तदप्याहुर्दुरत्ययम्।। | 12-218-14a 12-218-14b |
प्रसन्नैरिन्द्रियैर्यद्यत्संकल्पयति मानसम्। तत्तत्स्वप्नेप्युपरते मनो बुद्धिर्निरीक्षते।। | 12-218-15a 12-218-15b |
व्यापकं सर्वभूतेषु वर्तते दीपवन्मनः। आत्मप्रभावात्तं विद्यात्सर्वा ह्यात्मनि देवताः।। | 12-218-16a 12-218-16b |
मनस्यन्तर्हितं द्वारं देहमास्थाय मानुषम्। यत्तत्सदसदव्यक्तं स्वपित्यस्मिन्निदर्शनम्।। | 12-218-17a 12-218-17b |
`व्यक्तभेदमतीतोऽसौ चिन्मात्रं परिदृश्यते।' सर्वभूतात्मभूतस्थं तमध्यात्मगुणं विदुः।। | 12-218-18a 12-218-18b |
लिप्सेन मनसा यश्च संकल्पादैश्वरं गुणम्। आत्मप्रसादात्तं विद्यात्सर्वा ह्यात्मनि देवताः।। | 12-218-19a 12-218-19b |
एवं हि तपसा युञ्ज्यादर्कवत्तमसः परम्। त्रैलोक्यप्रकृतिर्देही तमसोन्ते महेश्वरम्।। | 12-218-20a 12-218-20b |
तपो ह्यधिष्ठितं देवैस्तपोघ्नमसुरैस्तमः। एतद्देवासुरैर्गुप्तं तदाहुर्ज्ञानलक्षणम्।। | 12-218-21a 12-218-21b |
सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान्विदुः। सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ।। | 12-218-22a 12-218-22b |
`सत्त्वं मनस्तथा बुद्धिर्देवा इत्यभिशंब्दिताः। तैरेव हि वृतस्तस्माज्ज्ञात्वैवं परमं-----।। | 12-218-23a 12-218-23b |
निद्राविकल्पेन सतां---- विशति लोकवत्। स्वस्थो भवति गूढात्मा कलुषैः परिवर्जितः।। | 12-218-24a 12-218-24b |
निशादिका ये कथिता लोकानां कलुषा मताः। तैर्हीनं यत्पुरं शुद्धं बाह्याभ्यन्तरवर्तिनम्। सदानन्दमयं नित्यं भूत्वा तत्परमन्वियात्।। | 12-218-25a 12-218-25b 12-218-25c |
एवमाख्यातमत्यर्थं ब्रह्मचर्यमकल्मषम्। सर्वसंयोगहीनं तद्विष्ण्वाख्यं परमं पदम्। अचिन्त्यमद्भुतं लोके ज्ञानेन परिवर्तते।।' | 12-218-26a 12-218-26b 12-218-26c |
ब्रह्म तत्परमं ज्ञानममृतं ज्योतिरक्षरम्। ये विदुर्भावितात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम्।। | 12-218-27a 12-218-27b |
हेतुमच्छक्यमाख्यातुमेतावज्ज्ञानचक्षुषा। प्रत्याहारेण वा शक्यमव्यक्तं ब्रह्म वेदितुम्।। | 12-218-28a 12-218-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 218।। |
12-218-2 अपगतस्पृहः इति झ. पाठः।। 12-218-11 वेद सोऽन्तरपूरुषः इति ट. पाठः।। 12-218-16 अप्रतिमं मनः इति ध. पाठः। अप्रतिधं मनः इति झ. पाठः।। 12-218-21 गुप्तं ज्ञानाज्ञानस्य लक्षणमिति थ. ध. पाठः।। 12-218-27 ब्रह्म तत्परमं वेद्यं इति ट. थ. पाठः। ये विदुः सात्विकात्मानः इति थ. पाठः।।
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