महाभारतम्-12-शांतिपर्व-321
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याज्ञवल्क्येन जनकंप्रति योगनिरूपणम्।। 1।।
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-321-1x |
साङ्ख्यज्ञानं मया प्रोक्तं योगज्ञानं निबोध मे। यथाश्रुतं यथादृष्टं तत्त्वेन नृपसत्तम।। | 12-321-1a 12-321-1b |
नास्ति साङ्ख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम्। तावुभावेकचर्यौ तावुभावनिधनौ स्मृतौ।। | 12-321-2a 12-321-2b |
पृथक्पृथक्प्रपश्यन्ति येऽप्यबुद्धिरता नराः। वयं तु राजन्पश्याम एकमेव तु निश्चयात्।। | 12-321-3a 12-321-3b |
यदेव योगाः पश्यन्ति तत्साङ्ख्यैरपि दृश्यते। एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स तत्त्ववित्।। | 12-321-4a 12-321-4b |
रुद्रप्रधानानपरान्विद्धि योगानरिंदम्। तेनैव चाथ देहेन विचरन्ति दिशो दश।। | 12-321-5a 12-321-5b |
यावद्धि प्रलयस्तात सूक्ष्मेणाष्टगुणेन ह। योगेन लोकान्विचरन्सुखं संन्यस्य चानघ।। | 12-321-6a 12-321-6b |
तावदेवाष्टगुणिनं योगप्राहुर्मनीषिणः। सूक्ष्ममष्टगुणं प्राहुर्नेतरं नृपसत्तम।। | 12-321-7a 12-321-7b |
द्विगुणं योगत्यं तु योगानां प्राहुरुत्तमम्। सगुणं निर्गुणं चैव यथाशास्त्रनिदर्शनम्।। | 12-321-8a 12-321-8b |
धारणं चैव मनसः प्राणायामश्च पार्थिव। एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च।। | 12-321-9a 12-321-9b |
प्राणायामो हि सगुणो निर्गुणं धारयेन्मनः। यद्यदृश्यति मुञ्चन्वै प्राणान्मैथिलसत्तम। वाताधिक्यं भवत्येव तस्मात्तं न समाचरेत्।। | 12-321-10a 12-321-10b 12-321-10c |
निशायाः प्रथमे यामे चोदना द्वादश स्मृताः। मध्ये स्वप्नात्परे यामे द्वादशैव तु चोदनाः।। | 12-321-11a 12-321-11b |
तदेवमुपशान्तेन दान्तेनैकान्तशीलिना। आत्मारामेण बुद्धेन योक्तव्योऽऽत्मा न संशयः।। | 12-321-12a 12-321-12b |
पञ्चानामिन्द्रियाणां तु दोषानाक्षिप्य पञ्चधा। शब्दं रूपं तथा स्पर्शं रसं गन्धं तथैव च।। | 12-321-13a 12-321-13b |
प्रतिभामपवर्गं च प्रतिसंहृत्य मैथिल। इन्द्रियग्राममखिलं मनस्यभिनिवेश्य ह।। | 12-321-14a 12-321-14b |
मनस्तथैवाहंकारे प्रतिष्ठाप्य नराधिप। अहंकारं तथा बुद्धौ बुद्धिं च प्रकृतावपि।। | 12-321-15a 12-321-15b |
एवं हि परिसंख्याय ततो ध्यायन्ति केवलम्। विरजस्कमलं नित्यमनन्तं शुद्धमव्रणम्।। | 12-321-16a 12-321-16b |
तस्थुषं पुरुषं नित्यमभेद्यमजरामरम्। शाश्वतं चाव्ययं चैव ईशानं ब्रह्म चाख्यम्।। | 12-321-17a 12-321-17b |
युक्तस्य तु महाराज लक्षणान्युपधारम्। लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वयेत्।। | 12-321-18a 12-321-18b |
निर्वाते तु यथा दीपो ज्वलेत्स्नेहस—धतः। निश्चलोर्ध्वशिखस्तद्वद्युक्तमाहुर्मनीषिण।। | 12-321-19a 12-321-19b |
पाषाण इव मेघोत्थैर्यथा बिन्दुभिराहतः। नालं चालयितुं शक्यस्तथा युक्तस्य लक्षणम्।। | 12-321-20a 12-321-20b |
शक्तदुन्दुभिनिर्घोषैर्विधिधैर्गीतवादितैः। क्रियमाणैर्न कम्पेत युक्तस्यैतन्निदर्शनम्।। | 12-321-21a 12-321-21b |
तैलपात्रं यथा पूर्णं कराभ्यां गृह्य पूरुषः। सोपानमारुहेद्भीतस्तर्ज्यमानोऽसिषणिभिः।। | 12-321-22a 12-321-22b |
संयतात्मा भयात्तेषां न पात्राद्बिन्दुमुत्सृजेत्। तथैवोत्तरमागम्य एकाग्रमनसस्तथा।। | 12-321-23a 12-321-23b |
स्थिरत्वादिन्द्रियाणां तु निश्चलस्तथैव च। एवं युक्तस्य तु मुनेर्लक्षणान्युपल----।। | 12-321-24a 12-321-24b |
स्वयुक्तः पश्यते ब्रह्म यत्तत्परम----यम्। महतस्तमसो मध्ये स्थितं ज्व नसा--भम्।। | 12-321-25a 12-321-25b |
एतेन केवलं याति त्यक्त्वा देहमसाक्षिकम्। कालेन महता राजञ्श्रुतिरेषा सनातनी।। | 12-321-26a 12-321-26b |
एतद्धि योगं योगानां किमन्यद्योगलक्षणम्। विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः।। | 12-321-27a 12-321-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 321।। |
12-321-2 तावुभावेकपक्षौ तु इति ट. पाठः।। 12-321-3 येऽल्पबुद्धिपरायणा इति ट. ड. पाठः।। 12-321-6 सुखं वसति चानघेति ट. ड. पाठः।। 12-321-8 निर्गुणं योगकृत्यं त्विति ट. पाठः।। 12-321-10 दृश्यते यत्र मुञ्जन्वै इति ट. ड. पाठः।। 12-321-14 मनस्यगिर एव चेति ड. पाठः। पूतिकामुपसर्गं वेति ड. पाठः।। 12-321-24 हियमाणैर्न कम्पेयुरिति ड. पाठः।। 12-321-26 कालेन केवलं जानञ्श्रुतिरेषा सनातनीति ड. पाठः।।
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