महाभारतम्-12-शांतिपर्व-094
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वसुमनसे वामदेवोक्तराजधर्मकथनम्।। 1।।
वामदेव उवाच। | 12-94-1x |
अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद्वसुधाधिपः। जघन्यमाहुर्विजयं युद्धेन च नराधिप।। | 12-94-1a 12-94-1b |
न चाप्यलब्धं लिप्सेत मूले नातिदृढे सति। न हि दुर्बलमूलस्य राज्ञो लाभो विवर्धते।। | 12-94-2a 12-94-2b |
यस्य स्फीतो जनपदः संपन्नप्रियराजकः। संतुष्टः पुष्टसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः।। | 12-94-3a 12-94-3b |
यस्य योधाः सुसंतुष्टाः स्वनुरक्ताः सुपूजिताः। अल्पेनापि स दण्डेन महीं जयति पार्थिवः।। | 12-94-4a 12-94-4b |
`दण्डो हि बलवान्यत्र तत्र साम प्रयुज्यते। प्रदानं सामपूर्वं च भेदमूलं प्रशस्यते।। | 12-94-5a 12-94-5b |
त्रयाणां विफलं कर्म यदा पश्येत भूमिपः। रन्ध्रं ज्ञात्वा ततो दण्डं प्रयुञ्जीताविचारयन्।। | 12-94-6a 12-94-6b |
अभिभूतो यदा शत्रुः शत्रुभिर्बलवत्तरैः। उपेक्षा तत्र कर्तव्या वध्यता बलिनां बलम्।। | 12-94-7a 12-94-7b |
दुर्बलो हि महीपालो यदा भवति भारत। उपेक्षा तत्र कर्तव्या चतुर्णामविरोधीनि। उपायः पञ्चमः सोऽपि सर्वेषां बलवत्तरः।। | 12-94-8a 12-94-8b 12-94-8c |
भार्गवेण च गीतानां श्लोकानां कोसलाधिप। विज्ञाय तत्वं तत्वज्ञ तत्वतस्तत्करिष्यति।। | 12-94-9a 12-94-9b |
यदि रक्षःपिशाचेन हन्यते यत्रकुत्रचित्। उपेक्षा तत्र कर्तव्या वाच्यतां बलिनां बलम्।। | 12-94-10a 12-94-10b |
दुर्बलोऽपि महीपाल शत्रूणां शत्रुमुद्धरेत्। पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम्।। | 12-94-11a 12-94-11b |
शठानां उचिवानां च म्लेच्छानां च महीपते। एष उक्त उपायानामुपेक्षा बलवत्तम।। | 12-94-12a 12-94-12b |
अश्मना नाशयेल्लोहं लोहेनाश्मानमेव तु। बिल्वानि वा परैर्बिल्वैर्म्लेच्छैर्म्लेच्छान्प्रसादयेत्।। | 12-94-13a 12-94-13b |
दासानां च प्रदृप्तानामेतदेव हि कारयेत्। चण्डालम्लेच्छजातीनां दण्डेनैव निवारणम्। शठानां दुर्विनीतैश्च पूर्वमुक्तं समाचरेत्।। | 12-94-14a 12-94-14b 12-94-14c |
अन्त्याः शठाश्च सचिवास्तथा कुब्राह्मणादयः। उपायैः पञ्चभिः साध्याश्चतुर्वर्गविरोधिनः।। | 12-94-15a 12-94-15b |
पौरजानपदा यस्य स्वनुरक्ता अपीडिताः। राष्ट्रकर्मकरा ह्येते राष्ट्रस्य च विरोधिनः।। | 12-94-16a 12-94-16b |
दुर्विनीता विनीताश्च सर्वे साध्याः प्रयत्नतः। चण्डालम्लेच्छजात्याश्च पाषण्डाश्च विकर्मिणः। बलिनश्चाश्रमाश्चैव तथा गायकनर्तकाः।।' | 12-94-17a 12-94-17b 12-94-17c |
पौरजानपदा यस्य भूतेषु च दयालवः। सधना धान्यवन्तश्च दृढमूलः स पार्थिवः।। | 12-94-18a 12-94-18b |
प्रतापकालमधिकं यदा मन्येत चात्मनः। तदा लिप्सेत मेधावी परभूमिधनान्युत।। | 12-94-19a 12-94-19b |
भोगेषूदयमानस्य भूतेषु च दयावतः। वर्धते त्वरमाणस्य विषयो रक्षितात्मनः।। | 12-94-20a 12-94-20b |
तक्षेदात्मानमेवं स वनं परशुना यथा। यः सम्यग्वर्तमानेषु स्वेषु मिथ्या प्रवर्तते।। | 12-94-21a 12-94-21b |
नैव द्विषन्तो हीयन्ते राज्ञो नित्यमनिघ्नतः। क्रोधं निहन्तुं यो वेद तस्य द्वेष्टा न विद्यते।। | 12-94-22a 12-94-22b |
यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद्बुधः। यत्कल्याणमभिध्यायेत्तत्रात्मानं नियोजयेत्।। | 12-94-23a 12-94-23b |
नैवमन्येऽवजानन्ति नात्मना परितप्यते। कृत्यशेषेण यो राजा सुखान्यनुबुभूषति।। | 12-94-24a 12-94-24b |
इदं वृत्तं मनुष्येषु वर्तते यो महीपतिः। उभौ लोकौ विनिर्जित्य विजये संप्रतिष्ठते।। | 12-94-25a 12-94-25b |
भीष्म उवाच। | 12-94-26x |
इत्युक्तो वामदेवेन सर्वं तत्कृतवान्नृपः। तथा कुर्वंस्त्वमप्येतौ लोकौजेता न संशयः।। | 12-94-26a 12-94-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94।। |
12-94-2 नातिदृढे अनतिदृढे।। 12-94-4 दण्डेन सैन्येन।। 12-94-24 कृत्यशेषेण परकृत्यं कार्स्त्न्येन न समापयेत्। समापिते तु परोऽवमृन्यते स्वस्य च तापो भवतीत्यर्थः।। 12-94-26 नृपो वसुमनाः।।
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