महाभारतम्-12-शांतिपर्व-273
← शांतिपर्व-272 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-273 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-274 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति प्रजापालनप्रकारप्रतिपादकद्युमत्सेनसत्यवत्संवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-273-1x |
कथं राजा प्रजा रक्षेन्न च किंचित्प्रतापयेत्। पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-273-1a 12-273-1b |
भीष्म उवाच। | 12-273-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। द्युमत्सेनस्य संवादं राज्ञा सत्यवता सह।। | 12-273-2a 12-273-2b |
अव्याहृतं व्याजहार सत्यवानिति नः श्रुतम्। वधाय नीयमानेषु पितुरेवानुशासनात्।। | 12-273-3a 12-273-3b |
अधर्मतां याति धर्मो यात्यधर्मश्च धर्मताम्। वधो नाम भवेद्धर्मो नैतद्भवितुमर्हति।। | 12-273-4a 12-273-4b |
द्युमत्सेन उवाच। | 12-273-5x |
अथ चेदवधो धर्मोऽधर्मः को जातुचिद्भवेत्। दस्यवश्चेन्न हन्येरन्सत्यवन्संकरो भवेत्।। | 12-273-5a 12-273-5b |
ममेदमिति नास्यैतत्प्रवर्तेत कलौ युगे। लोकयात्रा न चैव स्यादश्च चेद्वेत्थ शंस नः।। | 12-273-6a 12-273-6b |
सत्यवानुवाच। | 12-273-7x |
सर्व एव त्रयो वर्णाः कार्या ब्राह्मणबन्धनाः। धर्मपाशनिबद्धानां नाल्पोऽप्यपचरिष्यति।। | 12-273-7a 12-273-7b |
यो यस्तेषामपचरेत्तमाचक्षीत वै द्विजः। अयं मे न शृणोतीति तस्मिन्राजा प्रधारयेत्।। | 12-273-8a 12-273-8b |
तत्त्वाभावेन यच्छास्त्रं तत्कुर्यान्नान्यथा वधः। असमीक्ष्यैव कर्माणि नीतिशास्त्रं यथाविधि। दस्यून्निहन्ति वै राजा भूयसो वाऽप्यनागसः।। | 12-273-9a 12-273-9b 12-273-9c |
भार्या माता पिता पुत्रो हन्यन्ते पुरुषेण ते। परेणापकृतो राजा तस्मात्सम्यक्प्रधारयेत्।। | 12-273-10a 12-273-10b |
असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीतमेकदा। साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यः शोभना जायते प्रजाः।। | 12-273-11a 12-273-11b |
न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः। अपि खल्ववधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते।। | 12-273-12a 12-273-12b |
उद्वे तेन बन्धेन विरूपकरणेन च। वधदण्डेन क्लिश्या न पुरोहितससदि।। | 12-273-13a 12-273-13b |
यदा पुरोहितं वा ते पर्येयुः शरणैपिणः। करिष्यामः पुनर्ब्रह्मन्न पापमिति वादिनः।। | 12-273-14a 12-273-14b |
तदा विसर्गमर्हाः स्युरितीदं धातृशासनम्। विभ्रद्दण्डाजिनं मुण्डो ब्राह्मणोऽर्हति शासनम्।। | 12-273-15a 12-273-15b |
गरीयांसो गरीयांसमपराधे पुनः पुनः। तदा विसर्गमर्हन्ति न यथा प्रथमे तथा।। | 12-273-16a 12-273-16b |
द्युमत्सेन उवाच। | 12-273-17x |
यत्रयत्रैव शक्येरन्संयन्तुं समये प्रजाः। स तावान्प्रोच्यते धर्मो यावन्न प्रतिलङ्घ्यते। अहन्यमानेषु पुनः सर्वमेव पराभवेत्।। | 12-273-17a 12-273-17b 12-273-17c |
पूर्वे पूर्वतरे चैव सुशास्या ह्यभवञ्जनाः। मृदवः सत्यभूयिष्ठा अल्पद्रोहाल्पमन्यवः।। | 12-273-18a 12-273-18b |
पुरा धिग्दण्ड एवासीद्वाग्दण्डस्तदनन्तरम्। आसीदादानदण्डोऽपि वधदण्डोऽद्य वर्तते।। | 12-273-19a 12-273-19b |
वधेनापि न शक्यन्ते नियन्तुमपरे जनाः।। | 12-273-20a |
नैव दस्युर्मनुष्याणां न देवानामिति श्रुतिः। न गन्धर्वपितृणां च कः कस्येह न कश्चन।। | 12-273-21a 12-273-21b |
पक्वं श्मशानादादत्ते पिशाचांश्चापि दैवतम्। तेषु यः समयं कश्चित्कुर्वीत हतबुद्धिषु।। | 12-273-22a 12-273-22b |
सत्यवानुवाच। | 12-273-23x |
तान्न शक्नोषि चेत्साधून्परित्रातुमहिंसया। कस्यचिद्भूतभव्यस्य लोभेनान्तं तथा कुरु।। | 12-273-23a 12-273-23b |
राजानो लोकयात्रार्थं तप्यन्ते परमं तपः। तेऽपत्रपन्ति तादृग्भ्यस्तथावृत्ता भवन्ति च।। | 12-273-24a 12-273-24b |
वित्रास्यमानाः सुकृतो न कामाद्धन्ति दुष्कृतीन्। सुकृतेनैव राजानो भूयिष्ठं शासते प्रजाः।। | 12-273-25a 12-273-25b |
श्रेयसः श्रेयसोऽप्येवं वृत्तं लोकोऽनुवर्तते। सदैव हि गुरोर्वृत्तमनुवर्तन्ति मानवाः।। | 12-273-26a 12-273-26b |
द्युमत्सेन उवाच। | 12-273-27x |
आत्मानमसमाधाय समाधित्सति यः परान्। विषयेष्विन्द्रियवशं मानवाः प्रहसन्ति तम्।। | 12-273-27a 12-273-27b |
यो राज्ञो दम्भमोहेन किंचित्कुर्यादसांप्रतम्। सर्वोपायैर्नियम्यः स तथा पापान्निवर्तते।। | 12-273-28a 12-273-28b |
आत्मैवादौ नियन्तव्यो दुष्कृंतं संनियच्छता। दण्डयेच्च महादण्डैरपि बन्धूननन्तरान्।। | 12-273-29a 12-273-29b |
`यो राजा लोभमोहेन किंचित्कुर्यादसांप्रतम्। सर्वोपायैर्नियम्यः स तथा पापान्निवर्तते।।' | 12-273-30a 12-273-30b |
यत्र वै पापकृन्नीचो न महद्दुःखमर्च्छति। वर्धन्ते तत्र पापानि धर्मो ह्रसति च ध्रुवम्।। | 12-273-31a 12-273-31b |
इति कारुण्यशीलस्तु विद्वान्वै ब्राह्मणोऽन्वशात्। इति चैवानुशिष्टोऽस्मि पूर्वैस्तातपितामहैः। आश्वासयद्भिः सुभृशमनुक्रोशात्तथैव च।। | 12-273-32a 12-273-32b 12-273-32c |
एतत्प्रथमकल्पेन राजा कृतयुगे जयेत्। पादोनेनापि धर्मेण गच्छेत्रेतायुगे तथा। द्वापरे तु द्विपादेन पादेन त्ववरे युगे।। | 12-273-33a 12-273-33b 12-273-33c |
तथा कलियुगे प्राप्ते राज्ञो दुश्चरितेन ह। भवेत्कालविशेषेण कला धर्मस्य षोडशी।। | 12-273-34a 12-273-34b |
अथ प्रथमकल्पेन सत्यवन्संकरो भवेत्। आयुः शक्तिं च कालं च निर्दिश्य तप आदिशेत्।। | 12-273-35a 12-273-35b |
सत्याय हि यथा नेह जह्याद्धर्मफलं महत्। भूतानामनुकम्पार्थं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्।। | 12-273-36a 12-273-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 273।। |
12-273-3 अव्याहृतं दण्ड्यानामप्यदण्ड्यत्वं प्राक्केनाप्यनुक्तम्। वधाय वष्येष्विति शेषः।। 12-273-4 वधो नाम स च धर्म इति वदतोव्याघात इत्यर्थः।। 12-273-8 अपचरेद्ब्राह्मणवचनमतिक्रामेत्। प्रधारयेद्दण्डम्। अधर्मेण शृणोतीति ट. थ. पाठः।। 12-273-10 अनपराधिवधात् जन्मन्यस्मिन्नेव पापं फलतीत्याह भार्येति।। 12-273-11 साधोः सकाशात् शीलं लभते।। 12-273-14 ते दस्यवः।। 12-273-15 बिभ्रदिति संन्यासिनोऽपि शास्यां इत्यर्थः।। 12-273-16 गरीयांसमपि शास्युरिति शेषः। पुनःपुनरपराधे कृते तदा ते विसर्गं नार्हन्ति। प्रथमापराथे इवेति व्यतिरेकदृष्टान्तः।। 12-273-18 धर्मोल्लङ्घनेऽप्यहन्यमानेषु चोरेषु पूर्वे पूर्वकाले।। 12-273-19 अद्य कलौ।। 12-273-21 नैव दस्युषु दया कार्येत्याह। नैवेति। कः कस्येहेति प्रश्नः। न कश्चन कस्यापीत्युत्तरम्।। 12-273-22 चोरेषु मर्यादाकरणमपि न संभवतीत्याह पक्कमिति। तेषु समयं शास्त्रमर्यादां यः कुर्वीत स पक्वं श्मशानादादत्ते पिशाचान् दैवतत्वेन गृह्णाति। पात्रं श्मशानादिति ड. पाठः। पद्मं श्मशानादिति झ. पाठः। तत्र पद्मं शवालंकारमित्यर्थः।। 12-273-23 लाभेनाथ तथा कुर्विति ड. पाठः।। 12-273-24 ते राजानस्तादृग्भ्यः स्तेनेभ्योऽपत्रपन्ते ममापि राज्ये स्तेन इति लज्जां कुर्वतेऽतस्यथा वृत्ता लोकयात्रार्थं प्रजानां निर्दोषत्वं कामयानाः पितर इव तपस्विनो भवन्ति।। 12-273-25 वित्रास्यमाना इति त्रासेनैव प्रजाः साध्व्यो भवन्ति।। 12-273-29 दुष्कृतं दुष्टकर्मकारिष्यम्।। 12-273-32 आश्वासयद्भिः द्रजा इति शेषः।। 12-273-33 एतद्भूमण्डलं प्रथमकल्पने मुख्येवार्हिसाभवेन दण्डेन जयेद्वशीकुर्यात्। धिग्दण्डं वाग्दण्डमादातदण्डं वधृदण्डं च युगक्रमेण प्रजासु प्रवर्णयेदिति तात्पर्यम्।। 12-273-35 निर्दिश्य निश्चित्य। तपोदण्डम्। राजभिः कृतदण्डास्तु सुच्द्यन्ति गलिना जाना इति दण्डस्यापि तपोवच्छुद्धिहेतुत्वस्मृतेः।। 12-273-36 सत्याय ब्रह्मप्राप्तये। हि प्रतिद्धम्। महद्धमंफलं ज्ञानम्। गया येन प्रकारेणेह न जह्यात्तादृशमहिंसाख्यं धर्मं मनुरब्रवीत्।।
शांतिपर्व-272 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-274 |