महाभारतम्-12-शांतिपर्व-120
← शांतिपर्व-119 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-120 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-121 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति प्रजापालनप्रकारादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-120-1x |
राजवृत्तान्यनेकानि त्वया प्रोक्तानि भारत। पूर्वैः पूर्वनियुक्तानि राजधर्मार्थवेदिभिः।। | 12-120-1a 12-120-1b |
तदेव विस्तरेणोक्तं पूर्ववृत्तं सतां मतम्। प्रणेयं राजधर्माणां प्रब्रूहि भरतर्षभ।। | 12-120-2a 12-120-2b |
भीष्म उवाच। | 12-120-3x |
रक्षणं सर्वभूतानामिति क्षात्रं परं मतम्। तद्यथा रक्षणं कुर्यात्तथा शृणु महीपते।। | 12-120-3a 12-120-3b |
यथा बर्हाणि चित्राणि बिभर्ति भुजगाशनः। तथा बहुविधं राजा रूपं कुर्वीत् धर्मवित्।। | 12-120-4a 12-120-4b |
तैक्ष्ण्यं जिह्नत्वमादानं सत्यमार्जवमेव च। मध्यस्थाः सत्वमातिष्ठंस्तथा वै सुखमृच्छति।। | 12-120-5a 12-120-5b |
यस्मिन्नर्थे यथैव स्यात्तदूर्णं रूपमादिशेत्। बहुरूपस्य राज्ञो हि सूक्ष्मोऽप्यर्थो न सीदति।। | 12-120-6a 12-120-6b |
नित्यं रक्षितमन्त्रः स्याद्यथा मूकः शरच्छिखी। श्लक्ष्णाक्षरगतः श्रीमान्भवेच्छास्त्रविशारदः।। | 12-120-7a 12-120-7b |
आयव्ययेषु युक्तः स्याज्जलस्रवणेष्विव। शैलाद्वर्षोदकानीव द्विजान्सिद्धान्समाश्रयेत्। आत्मार्थं हि सदा राजा कुर्याद्धर्मध्वजोत्तमम्।। | 12-120-8a 12-120-8b 12-120-8c |
नित्यमुद्यतदण्डः स्यादाचारे चाप्रमादवान्। लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा वृक्षाद्वृक्षमिवाव्रजेत्।। | 12-120-9a 12-120-9b |
आज्ञावान्स्यात्स्वयूथ्येषु भौमानि चरणैः किरन्। जतिपक्षः परिस्पन्देत्प्रेक्षेद्वैकल्यमात्मनः।। | 12-120-10a 12-120-10b |
दोषान्विवृणुयाच्छत्रोः परपक्षांश्च सूदयेत्। क ननेष्विव पुष्पाणि बहिरर्थान्समाचरेत्।। | 12-120-11a 12-120-11b |
उच्छ्रितानाश्रयेत्स्फूतान्नरेन्द्रानचलोपमान्। श्रयेच्छायामिव ज्ञातिं गुप्तं शरणमाश्रयेत्।। | 12-120-12a 12-120-12b |
प्रावृषीवासितग्रीवो माद्येत निशि निर्जने। मायूरेण गुणेनैव स्त्रीभिरारक्षितश्चरेत्।। | 12-120-13a 12-120-13b |
न जह्याच्च तनुत्राणं रक्षेदात्मानमात्मना। चारभूमिष्विव ततान्पाशांश्च परिवर्जयेत्।। | 12-120-14a 12-120-14b |
प्रणयेद्वाऽपि तां भूमिं प्रणश्येद्ग्रहणे पुनः। `एवं मयूरधर्मेण वर्तयन्सततं नरः।' हन्यात्क्रुद्धानतिविषांस्ताञ्जिह्मगतयोऽहिताः।। | 12-120-15a 12-120-15b 12-120-15c |
नासूयेच्चावगर्ह्याणि सन्निवासान्निवासयेत्। सदा बर्हिसमं कामं प्रशस्तं कृतमाचरेत्। सर्वतश्चाददेत्प्रज्ञां पतङ्गं गहनेष्विव।। | 12-120-16a 12-120-16b 12-120-16c |
एवं मयूरवद्राजा स्वराज्यं परिपालयेत्। आत्मबुद्धिकरीं नीतिं विदधीत विचक्षणः।। | 12-120-17a 12-120-17b |
आत्मसंयमनं बुद्ध्या परबुद्ध्या विचारणाम्। बुद्ध्या चात्मगुणप्राप्तिरेतच्छास्त्रनिदर्शनम्।। | 12-120-18a 12-120-18b |
परं विश्वासयेत्साम्ना स्वशक्तिं चोपलक्षयेत्। आत्मनः परिमर्शेन बुद्धिं बुद्ध्या विचारयेत्।। | 12-120-19a 12-120-19b |
सान्त्वयोगमतिः प्राज्ञः कार्याकार्यप्रयोजनकः। निगूढबुद्धेर्धीरस्य वक्तव्ये वक्ष्यते तथा।। | 12-120-20a 12-120-20b |
संनिकृष्टां कथां प्राज्ञो यदि बुद्ध्या बृहस्पतिः। स्वभावमेष्यते तप्तं कृष्णायसमिवोदके।। | 12-120-21a 12-120-21b |
अनुयुञ्जीत सत्यानि सर्वाण्येव महीपतिः। आगमैरुपदिष्टानि स्वस्य चैव परस्य च।। | 12-120-22a 12-120-22b |
मृदुं क्रूरं तथा प्राज्ञं शूरं चार्थविधानवित्। स्वकर्मणि नियुञ्जीत ये चान्ये वचनाधिकाः।। | 12-120-23a 12-120-23b |
अप्यदृष्टानि युक्तानि स्वानुरूपेषु कर्मसु। सर्वांस्ताननुवर्तेत स्वरांस्तन्त्रीरिवायताः।। | 12-120-24a 12-120-24b |
धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत्। ममायमिति राजा यः सपर्वत इवाचलः।। | 12-120-25a 12-120-25b |
व्यवहारं समाधाय सूर्यो रश्मीनिवायतान्। धर्ममेवाभिरक्षेत कृत्वा तुल्ये प्रियाप्रिये।। | 12-120-26a 12-120-26b |
कुलप्रकृतिदेशानां धर्मज्ञान्मृदुभाषिणः। मध्ये वयसि निर्दोषान्हिते युक्ताञ्जितक्लमान्।। | 12-120-27a 12-120-27b |
अलुब्धाञ्शिक्षितान्दान्तान्धर्मेषु परिनिष्ठितान्। स्थापयेत्सर्वकार्येषु राजा सर्वार्थरक्षिणः।। | 12-120-28a 12-120-28b |
एतेन च प्रकारेण कृत्यानामागतिं गतिम्। युक्त्या समनुतिष्ठेन तुष्टश्चारैः पुरस्कृतः।। | 12-120-29a 12-120-29b |
अमोघक्रोधहर्शस्य स्वयं कृत्याऽनुदर्शिनाः। आत्मप्रत्ययकोशस्य वसुदैव वसुंधरा।। | 12-120-30a 12-120-30b |
व्यक्तश्चानुग्रहो यस्य यथोक्तश्चापि निग्रहः। गुप्तात्मा गुप्तराष्ट्रस्य स राजा राजधर्मवित्।। | 12-120-31a 12-120-31b |
नित्यं राष्ट्रमवेक्षेत गोभिः सूर्य इवातपन्। चारांश्चानुचरान्विद्यात्तथा बुद्ध्या स्वयं चरेत्।। | 12-120-32a 12-120-32b |
कालप्राप्तमुपादद्यान्नार्थं राजा प्रसूचयेत्। अहन्यहनि संदुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान्।। | 12-120-33a 12-120-33b |
यथाक्रमेण पुष्पेभ्यश्चिनोति मधु षट्पदः। तथा द्रव्यमुपादाय राजा कुर्वीत संचयम्।। | 12-120-34a 12-120-34b |
यद्धि गुप्तावशिष्टं स्यात्तद्वित्तं धर्मकामयोः। संचयान्न विसर्गी स्याद्राजा शास्त्रविदात्मवान्।। | 12-120-35a 12-120-35b |
नार्थमल्पं परिभवेन्नावमन्येत शात्रवान्। बुद्ध्याऽनुबुद्ध्या चात्मानं न चाबुद्धेषु विश्वसेत्।। | 12-120-36a 12-120-36b |
धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरात्मा धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमादः। अल्पस्य वा महतो वा विवृद्धौ धनस्यैतान्यष्ट समिंधनानि।। | 12-120-37a 12-120-37b 12-120-37c 12-120-37d |
अग्निस्तोको वर्धतेऽप्याज्यसिक्तो बीजं चैकं बहुसहस्रमेति। क्षयोदयौ विपुलौ सन्नियम्यौ तस्मादल्पं नावमन्येत वित्तम्।। | 12-120-38a 12-120-38b 12-120-38c 12-120-38d |
बालोऽप्यबालः स्थविरो रिपुर्यः। सदा प्रमत्तं पुरुषं निहन्यात्। कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत् कालज्ञानं पार्थिवाना वरिष्ठम्।। | 12-120-39a 12-120-39b 12-120-39c 12-120-39d |
हरेत्कीर्ति धर्ममस्योपरुन्ध्या दर्थे विघ्नं वीर्यमस्योपहन्यात्। रिपुर्द्वेष्टा दुर्बलो वा बली वा तस्माच्छत्रोर्नैव बिभ्येद्यथात्मा।। | 12-120-40a 12-120-40b 12-120-40c 12-120-40d |
क्षयं शत्रोः संचयं पालनं वा उभावर्थौ सहितौ धर्मकामौ। ततश्चान्यन्मतिमान्संदधीत तस्माद्राजा बुद्धिमन्तं श्रयेत।। | 12-120-41a 12-120-41b 12-120-41c 12-120-41d |
बुद्धिर्दीप्ता बलवन्तं हिनस्ति बलं बुद्ध्या पाल्यते वर्धमानम्। शत्रुर्बुद्ध्या सीदते पीड्यमानो बुद्धिपूर्वं कर्म यत्तत्प्रशस्तम्।। | 12-120-42a 12-120-42b 12-120-42c 12-120-42d |
सर्वान्कामान्कामयानो हि धीरः सत्वेनाल्पेनाप्नुते हीनदोषः। यश्चात्मानं प्रार्थयतेऽर्थ्यमानैः श्रेयः पात्रं पूरयते च नाल्पम्।। | 12-120-43a 12-120-43b 12-120-43c 12-120-43d |
तस्माद्राजा प्रगृहीतः प्रजासु मूलं लक्ष्म्याः सर्वशो ह्याददीत। दीर्घं कालं ह्यपि संपीड्यमानो व्युष्यात्संपद्व्यवसायेन शक्त्या।। | 12-120-44a 12-120-44b 12-120-44c 12-120-44d |
विद्या तपो वा विपुलं धनं वा सर्वं ह्येतद्व्यवसायेन शक्यम्। ब्रह्मायत्तं निवसति देहवत्सु तस्माद्विद्याद्व्यवसायं प्रभूतम्।। | 12-120-45a 12-120-45b 12-120-45c 12-120-45d |
यत्रासते मतिमन्तो मनस्विनः शक्रो विष्णुर्यत्र सरस्वती च। वसन्ति भूतानि च यत्र नित्यं तस्माद्विद्वान्नावमन्येत देहम्।। | 12-120-46a 12-120-46b 12-120-46c 12-120-46d |
लुब्धं हन्यात्संप्रदानाद्धि नित्यं लुब्धस्तृप्तिं परवित्तस्य नैति। सर्वो लुब्धः सर्वगुणोपभोगो योऽर्थैर्हीनो धर्मकामौ जहाति।। | 12-120-47a 12-120-47b 12-120-47c 12-120-47d |
धनं भोगं पुत्रदारं समृद्धिं सर्वं लुब्धः प्रार्थयते परेषाम्। लुब्धे दोषाः संभवन्तीह सर्वे तस्माद्राजा न प्रगृह्णीत् लुब्धम्।। | 12-120-48a 12-120-48b 12-120-48c 12-120-48d |
संदर्शनेन पुरुषं जघन्यमपि चोदयेत्। आरम्भान्द्विषतां प्राज्ञः सर्वार्थांश्च प्रसूदयेत्।। | 12-120-49a 12-120-49b |
धर्मान्वितेषु विज्ञाता मन्त्रगुप्तिंश्च पाण्डव। आप्तो राजन्कुलीनश्च पर्याप्तो राष्ट्रसंग्रहे।। | 12-120-50a 12-120-50d |
विविप्रयुक्तान्नरदेवधर्मा नुक्तान्समासेन निबोध बुद्ध्या। इमान्विदध्यादनुसृत्य यो वै राजा महीं पालयितुं स शक्तः।। | 12-120-51a 12-120-51b 12-120-51c 12-120-51d |
सुनीतिजं यस्य विधानजं सुखं धर्मप्रणीतं विधिवत्प्रसिद्ध्यति। न निन्द्यते तस्य गतिर्महीपते स विन्दते राज्यसुखं ह्यनुत्तमम्।। | 12-120-52a 12-120-52b 12-120-52c 12-120-52d |
धनैर्विशिष्टान्मतिशीलपूजिता न्गुणोपपन्नान्युधि दृष्टविक्रमान्। गुणेषु युक्तानचिरादिवात्मवां स्ततोऽभिसंधाय निहन्ति शात्रवान्।। | 12-120-53a 12-120-53b 12-120-53c 12-120-53d |
पश्येदुपायान्विविधेषु कर्मसु न चानुपायेन मतिं निवेशयेत्। श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं न दोषदर्शी पुरुषः समश्नुते।। | 12-120-54a 12-120-54b 12-120-54c 12-120-54d |
प्रीतिप्रवृत्तिं विनिवर्तनं च सुहृसु विज्ञाय विचार्य चोभयोः। यदेव मित्रं गुरुभारमावहे त्तदेव सुस्निग्धमुदाहरेद्बुधः।। | 12-120-55a 12-120-55b 12-120-55c 12-120-55d |
एतान्मयोक्तांश्चर राजधर्मा न्नृणां च गुप्तौ मतिमादधत्स्व। अवाप्स्यसे पुण्यफलं सुखेन सर्वो हि लोको नृप धर्ममूलः।। | 12-120-56a 12-120-56b 12-120-56c 12-120-56d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 120।। |
12-120-2 राजधर्माणां राजधर्मविदां मतं यद्विस्तरेणोक्तं तदेव प्रणेयं प्रकर्षेण नेतुं वोढु शक्यं संक्षिप्तमित्यर्थः। प्रणयं राजधर्माणामिति थ. द. पाठः।। 12-120-4 बर्हाणि पक्षान्। भुजगाशनो मयूरः।। 12-120-5 तैक्ष्ण्यं क्रूरत्वम्। जिह्मत्वं कोटिल्यम्।। 12-120-6 यस्मिंन्नर्थे दण्डेऽनुग्रहे वा। रूपमादिशेद्दर्शयेत्।। 12-120-7 शरच्छिस्वी शरत्कालमयूरः।। 12-120-8 युक्तोऽवहितः स्यात्। वर्षोदकानि वृष्ट्या जनितानि महानदीजलानि। अर्थकामः शिखां राजा कुर्याद्धर्मध्वजोपमाम् इति झ. पाठः। तत्र शिखां योग्यलिङ्गं क्रूरत्वादिकं कुर्यात् प्रकाशयेदित्यर्थः।। 12-120-9 लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा वृहद्वृक्षमिवास्रवदिति झ. पाठः। तत्र बृहन्तो वृक्षा यत्र तद्वृहद्वक्षं तालवनम्। आस्रवत् रसं प्रस्रवत्। यथा रसग्राही प्रदेशविशेषे एव प्रहृत्य रसं गृह्णीति नतु कृत्स्नवृक्षच्छेदेनेक्षुकाण्डादिवत्ततो रसं जिघृक्षति। एवं प्रजानामायव्ययौ ज्ञात्वा ता जीवयंस्ताभ्यो धनरसमादद्यादित्यर्थः।। 12-120-10 भौमानि परेषां सस्यानि चरणैरश्वादिगमनैः किरन् नाशयन्नित्यर्थः।। 12-120-13 असितग्रीवो मयूरः।। 12-120-14 चारैर्दर्शितासु भूमिषु धात्रीसौविदल्लसूपकारादिषु परैर्भेदितेषु ततान्विषादीन्पाशान्।। 12-120-15 पाशज्ञाने सति तां कपटभूमिं प्रतिपद्यात्मानं प्रणयेत्प्रापयेत्तदानश्येदेव। वाशब्द एवार्थे।। 12-120-16 सन्निवासान्दृढमूलान्पक्षा नमात्यादीन् शूरांश्च वासयेत्स्थापयेत्। बर्हिसमं मयूरतुल्यं कामं यथेष्टं प्रशस्तं कृतं प्रशस्तां क्रियां पक्षाणां विस्फारणमाचरेत्। पतङ्गं शलभसमूहो यथा गहनेषु पतति गहनं च निष्पन्नं करोति एवं संभूय शत्रूराष्ट्रे पतितव्यमित्यर्थः।। 12-120-18 बुद्ध्या आत्मनः संयमनं इत्थमेव कर्तुं युक्तं नियमं कुर्यात्। परबुद्ध्या च तत्रैवार्थे संवादितया तस्यार्थस्य विचारणं दृढतरो निश्चयः कार्यः। बुद्ध्या शास्त्रोत्थधिया आत्मगुणस्य पूर्वोक्तनिश्चयहेतोः प्राप्तिर्भवति। एतदेव शास्त्रस्य निदर्शनं प्रयोजनं यत्कार्यक्षोदक्षमता बुद्धेरित्यर्थः।। 12-120-19 आत्मनः स्वस्य परिमर्शेन सर्वतोऽतीतानागतविचारेण बुद्धिं कार्यनिश्चयं बुद्ध्या ऊहापोहकौशलरूपया मेधया विचारयेत्साधकबाधकभूमौ संचारयेत्।। 12-120-21 प्राज्ञो बुद्ध्या बृहस्पतिसमोऽपि सन् यदि निकृष्टां कथां निर्बुद्धित्ववादं प्राप्नुयात्तर्हि सद्यएव युक्त्या स्वभावं स्वास्थ्यं एष्यते। उदके प्रक्षिप्तं तप्तायसं शैत्यमिव।। 12-120-33 न अर्थं प्रसूचयेत् अर्थवृत्तां न ज्ञापयेत्।। 12-120-35 संचयान्न विसर्गी स्यात्। कोशाद्धनं न दद्यादपितूपर्याहृतमेवेत्यर्थः।। 12-120-37 आत्मा देहः। देशे काले वाऽप्रमाद इत्येकम्।। 12-120-39 अबालः अहीनः। अन्यः संपन्नः।। 12-120-41 धर्मकामौ बुद्ध्या संदधीत संधिं वा कुर्यात्। अन्यत् विग्रहादिकं कुर्यात्।। 12-120-42 वर्धमानं क्षीयमाणम्।। 12-120-43 अल्पेनापि सत्वेन बलेन। अर्थ्यमानैर्युक्तम्। आत्मानं प्रार्थयते। लुब्धो दृप्तश्च भवतीत्यर्थः। श्रेयः पात्रं न पूरयते ततः श्रेयोऽपसर्पतीत्यर्थः।। 12-120-44 प्रगृहीतः स्रिग्धः। लक्ष्म्याः मूलं अर्थं सर्वशः सर्वाभ्यः संपीढ्यमानः संपीड्यन्।। 12-120-45 व्यवस येन उद्योगेन विद्यात् लभेत्।। 12-120-46 अनुद्योगेन जन्म न नाश्येदित्याह यत्रेति।। 12-120-47 समृद्धिं च प्राप्यापीति शेषः। धनं उत्कोचरूपम्।। 12-120-52 विधानजं दैवप्राप्तम्।। 12-120-53 गुणोपपन्नाञ्शौर्यादियुक्तान्। गुणेषु संधिविग्रहादिषु आत्मवानप्रमत्तः।। 12-120-54 दोषदर्शी निर्दोषष्वेपीति शेषः।। 12-120-55 उदाहरेत्प्रशंसेत्।। 12-120-56 चरानुतिष्ठ। आदधत्स्व आधत्स्वा। दध धारणे इत्यस्य रूपम्।।
शांतिपर्व-119 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-121 |