महाभारतम्-12-शांतिपर्व-265
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धर्मलक्षणकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-265-1x |
इमे वै मानसाः सर्वे धर्मं प्रति विशङ्किताः। कोऽयं धर्मः कुतो धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-265-1a 12-265-1b |
धर्मस्त्वयमिहार्थः किममुत्रार्थोपि वा भवेत्। उभयार्थो हि वा धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-265-2a 12-265-2b |
भीष्म उवाच। | 12-265-3x |
सदाचारः स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्। चतुर्थमर्थमप्याहुः कवयो धर्मलक्षणम्।। | 12-265-3a 12-265-3b |
अविध्युक्तानि कर्माणि व्यवस्यन्त्युप्तमूषरे। लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः।। | 12-265-4a 12-265-4b |
उभयत्र सुखोदर्क इह चैव परत्र च। अलब्ध्वा निपुणं धर्मं पापः पापे प्रसज्जति।। | 12-265-5a 12-265-5b |
न च पापकृतः पापान्मुच्यन्ते केचिदापदि। अपापवादी भवति यथा भवति धर्मवित्। धर्मस्य निष्ठा स्वाचारस्तमेवाश्रित्य चावसेत्।। | 12-265-6a 12-265-6b 12-265-6c |
यथाधर्मसमाविष्टो धनं गृह्णाति तस्करः। रमते निर्हरस्तेनः परवित्तमराजके।। | 12-265-7a 12-265-7b |
यदास्य तद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति। तदा तेषां स्पृहयते ये वै तुष्टाः स्वकैर्धनैः।। | 12-265-8a 12-265-8b |
अभीतः शुचिरभ्येति राजद्वारमशङ्कितः। न हि दुश्चरितं किंचिदन्तरात्मनि पश्यति।। | 12-265-9a 12-265-9b |
सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्। सत्येन विधृतं सर्वं सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।। | 12-265-10a 12-265-10b |
अपि पापकृतो रौद्राः सत्यं कृत्वा मिथःकृतम्। अद्रोहमविसंवादं प्रवर्तन्ते तदाश्रयाः।। | 12-265-11a 12-265-11b |
ते चेन्मिथ्या धृतिं कुर्युर्विनश्येयुरसंशयम्। न हर्तव्यं परधनमिति धर्मविदो विदुः।। | 12-265-12a 12-265-12b |
मन्यन्ते बलवन्तस्तं दुर्बलैः संप्रवर्तितम्। यदा नियतिदौर्बल्यमथैषामेव रोचते।। | 12-265-13a 12-265-13b |
न ह्यत्यन्तं बलयुता भवन्ति सुखिनोपि वा। तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न कार्या ते कदाचन।। | 12-265-14a 12-265-14b |
असाधुभ्योऽस्य न भयं न चौरेभ्यो न राजतः। अकिंचित्कस्यचित्कुर्वन्निर्भयः शुचिरावसेत्।। | 12-265-15a 12-265-15b |
सर्वतः शङ्कते स्तेनो मृगो ग्राममिवेयिवान्। बहुधाऽऽचरितं पापमन्यत्रैवानुपश्यति।। | 12-265-16a 12-265-16b |
मुदितः शुचिरभ्येति सर्वतो निर्भयः सदा। न हि दुश्चरितं किंचिदात्मनोऽन्येषु पश्यति।। | 12-265-17a 12-265-17b |
दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतैः। तं मन्यन्ते धनयुताः कृपणैः संप्रवर्तितम्।। | 12-265-18a 12-265-18b |
यदा नियतिकार्पण्यमथैपामव रोचते। धनवन्तोपि नात्यन्तं भवन्ति सुखिनोपि वा।। | 12-265-19a 12-265-19b |
यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः। न तत्परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः।। | 12-265-20a 12-265-20b |
योऽन्यस्य स्यादुपपतिः स कं किं वक्तुमर्हति। यदन्यस्य ततः कुर्यान्न मृष्येदिति मे मतिः।। | 12-265-21a 12-265-21b |
जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत्कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्। यद्यदात्मन इच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत्।। | 12-265-22a 12-265-22b |
अतिरिक्तः संविभजेद्भोगैरन्यानकिंचनान्। एतस्मात्कारणाद्धात्रा कुसीदं संप्रवर्तितम्।। | 12-265-23a 12-265-23b |
यस्मिंस्तु देवाः समये सन्तिष्ठेरंस्तथा भवेत्। अथ चेल्लोभसमये स्थितिर्धर्मोऽपि शोभना।। | 12-265-24a 12-265-24b |
सर्वं प्रियाभ्युपगतं पुण्यमाहुर्मनीषिणः। पश्यैतं लक्षणोद्देशं धर्माधर्मे युधिष्ठिर।। | 12-265-25a 12-265-25b |
लोकसंग्रहसंयुक्तं विधात्रा विहितं पुरा। सूक्ष्मधर्मार्थनियतं सतां चरितमुत्तमम्।। | 12-265-26a 12-265-26b |
धर्मलक्षणमाख्यातमेतत्ते कुरुसत्तम। तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न ते कार्या कथंचन।। | 12-265-27a 12-265-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 265।। |
12-265-14 तस्मादर्थार्जने बुद्धिरिति थ. पाठः।। 12-265-16 पापं मनस्येवाधिगच्छतीति थ. पाठः।। 12-265-18 क्षन्तव्यमित्ययं धर्म इति ध. पाठः।। 12-265-21 योऽन्यस्य स्वादुवद्वक्ति कस्तं हिंसितुमिच्छतीति ट. थ. पाठः।। 12-265-22 यः स्वयं नेच्छेदिति ध. पाठः।।
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