महाभारतम्-12-शांतिपर्व-254
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानादिस्ताधनप्रतिपादकव्यासवाक्यनुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-254-1x |
मनः प्रसृजते भावं बुद्धिरध्यवसायिनी। हृदयं प्रियाप्रिये वेद त्रिविधा कर्मवेदना।। | 12-254-1a 12-254-1b |
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा परो मतः।। | 12-254-2a 12-254-2b |
बुद्धिरात्मा मनुष्यस्य बुद्धिरेवात्मनो गतिः। यदा विकुरुते भाव तदा भवति सा मनः।। | 12-254-3a 12-254-3b |
इन्द्रियाणां पृथग्भावाद्बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्। शृण्वती भवति श्रोत्रं स्पृशती स्पर्श उच्यते।। | 12-254-4a 12-254-4b |
पश्यती भवते दृष्टी रसती रसनं भवेत्। जिघ्रती भवति घ्राणं बुद्धिर्विक्रियते पृथक्।। | 12-254-5a 12-254-5b |
इन्द्रियाणीति तान्याहुस्तेष्वदृश्योऽधितिष्ठति। तिष्ठती पुरुषे बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।। | 12-254-6a 12-254-6b |
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति। न सुखेन न दुःखेन कदाचिदिह युज्यते।। | 12-254-7a 12-254-7b |
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेताननुवर्तते। सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान्।। | 12-254-8a 12-254-8b |
यदा प्रार्थयते किंचित्तदा भवति सा मनः। अधिष्ठानानि वै बुद्ध्यां पृथगेतानि संस्मरेत। इन्द्रियाण्येवमेतानि विजेतव्यानि कृत्स्नशः।। | 12-254-9a 12-254-9b 12-254-9c |
सर्वाण्येवानुपूर्व्येण यद्यदाऽनुविधीयते। अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते। ` प्रवर्तमानं तु रजः सत्वमप्यनुवर्तते।।' | 12-254-10a 12-254-10b 12-254-10c |
ये चैव भावा वर्तन्ते सर्व एष्वेव ते त्रिषु। अन्वर्थाः संप्रवर्तन्ते रथनेमिमरा इव।। | 12-254-11a 12-254-11b |
प्रदीपार्थं मनः कुर्यादिन्द्रियैर्बुद्धिसत्तमैः। निश्चरद्भिर्यथायोगमुदासीनैर्यदृच्छया।। | 12-254-12a 12-254-12b |
एवं स्वभावमेवेदमिति विद्वान्न मुह्यति। अशोचन्नप्रहृष्यन्हि नित्यं विगतमत्सरः।। | 12-254-13a 12-254-13b |
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैः कामगोचरैः। प्रवर्तमानैरनयैर्दुर्धर्षैरकृतात्मभिः।। | 12-254-14a 12-254-14b |
तेषां तु मनसा रश्मीन्यदा सम्यङ्क्तियच्छति। तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा दीपदीप्ता यथाऽऽकृतिः।। | 12-254-15a 12-254-15b |
सर्वेषामेव भूतानां मनस्युपरते यथा। प्रकाशं भवते सर्वं तथेदमुपधार्यताम्।। | 12-254-16a 12-254-16b |
यथा वारिचरः पक्षी न लिप्यति जले चरन्। विमुक्तात्मा तथा योगी गुणदोषैर्न लिप्यते।। | 12-254-17a 12-254-17b |
एवमेव कृतप्रज्ञो न दोषैर्विषयांश्चरन्। असज्जमानः सर्वेषु कथंचन न लिप्यते।। | 12-254-18a 12-254-18b |
त्यक्त्वा पूर्वकृतं कर्म रतिर्यस्य सदाऽऽत्मनि। सर्वभूतात्मभूतस्य गुणवर्गेष्वसज्जतः।। | 12-254-19a 12-254-19b |
सत्वमात्मा प्रसरति गुणान्वाऽपि कदाचन। न गुणा विदुरात्मानं गुणान्वेद स सर्वदा।। | 12-254-20a 12-254-20b |
परिद्रष्टा गुणानां च परिस्रष्टा यथातथम्। क्षेतक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः।। | 12-254-21a 12-254-21b |
सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान्। पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा।। | 12-254-22a 12-254-22b |
यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात्संप्रयुक्तौ तथैव तौ। मशकोदुम्बरौ वाऽपि संप्रयुक्तौ यथा सह।। | 12-254-23a 12-254-23b |
इषीका वा यथा मुञ्जे पृथक्च सह चैव च। तथैव सहितावेतावन्योन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ।। | 12-254-24a 12-254-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 254।। |
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