महाभारतम्-12-शांतिपर्व-165
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स्वस्वाभिमतार्थकथनाय चोदितैर्विदुरार्जुनभीमसेनैः क्रमेण धर्मार्थकामेषु अभिष्टुतेषु युधिष्ठिरेण मोक्षप्रशंसनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-165-1x |
इत्युक्तवति भीष्मे तु तूष्णींभूते युधिष्ठिरः। पप्रच्छावसथं गत्वा भ्रातृन्विदुरपञ्चमान्।। | 12-165-1a 12-165-1b |
धर्मे चार्थे च कामे च लोकवृत्तिः समाहिता। तेषां गरीयान्कतमो मध्यमः को लघुश्च कः।। | 12-165-2a 12-165-2b |
कस्मिंश्चात्मा नियन्तव्यस्त्रिवर्गविजयाय वै। संपृष्टा नैष्ठिकं वाक्यं यथाबद्वक्तुमर्हथ।। | 12-165-3a 12-165-3b |
ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः प्रथमं प्रतिभानवान्। जगाद विदुरो वाक्यं धर्मशास्त्रमनुस्मरन्।। | 12-165-4a 12-165-4b |
विदुर उवाच। | 12-165-5x |
बहुश्रुतं तपस्त्यागः श्रद्धा यज्ञक्रिया क्षमा। भावशुद्धिर्दया सत्यं संयमश्चात्मसंपदः।। | 12-165-5a 12-165-5b |
एतदेवाभिपद्यस्व मा ते भूच्चलितं मनः। एतन्मूलौ हि धर्मार्थावेतदेकपदं हितम्।। | 12-165-6a 12-165-6b |
धर्मेणैवर्षयस्तीर्णा धर्मे लोकाः प्रतिष्ठिताः। धर्मेण देवा दिवि च धर्मे चार्थः समाहितः।। | 12-165-7a 12-165-7b |
धर्मो राजन्गुणः श्रेष्ठो मध्यमो ह्यर्थ उच्यते। कामो यवीयानिति च प्रवदन्ति मनीषिणः।। | 12-165-8a 12-165-8b |
तस्माद्धर्मप्रधानेन भवितव्यं यतात्मना। तथा च सर्वभूतेषु वर्तितव्यं यतात्मना।। | 12-165-9a 12-165-9b |
वैशंपायन उवाच। | 12-165-10x |
समाप्तवचने तस्मिन्भीमकर्मा धनञ्जयः। ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञो जगौ वाक्यं प्रचोदितः।। | 12-165-10a 12-165-10b |
कर्मभूमिरियं राजन्निह वार्ता प्रशस्यते। कृषिर्वाणिज्यगोरक्षं शिल्पानि विविधानि च।। | 12-165-11a 12-165-11b |
अर्थ इत्येव सर्वेषां कर्मणामव्यतिक्रमः। निवृत्तेऽर्थे न वर्तेते धर्मकामाविति श्रुतिः।। | 12-165-12a 12-165-12b |
विषहेतार्थवान्धर्ममाराधयितुमुत्तमम्। कामं च चरितुं शक्तो दुष्प्रापमकृतात्मभिः।। | 12-165-13a 12-165-13b |
अर्थस्यावयवावेतौ धर्मकामाविति श्रुतिः। अर्थसिद्ध्या विनिर्वृत्तावृभावेतौ भविष्यतः।। | 12-165-14a 12-165-14b |
तद्गतार्थं हि पुरुषं विशिष्टतरयोनयः। ब्रह्माणमिव भूतानि सततं पर्युपासते।। | 12-165-15a 12-165-15b |
जटाजिनधरा दान्ताः पङ्कदिग्धा जितेन्द्रियाः। मुण्डा निस्तन्तवश्चापि वसन्त्यर्थार्थिनः पृथक्।। | 12-165-16a 12-165-16b |
काषायवसनाश्चान्ये श्मश्रुला हि सुसंयताः। विद्वांसश्चैव शान्ताश्च मुक्ताः सर्वपरिग्रहैः।। | 12-165-17a 12-165-17b |
`अर्थार्थिनः सन्ति नित्यं परितष्यन्ति कर्मभिः।' अर्थार्थिनः सन्ति केचिदपरे स्वर्गकाङ्क्षिणः। कुलप्रत्यागमाश्चैके स्वंस्वं धर्ममनुष्ठिताः।। | 12-165-18a 12-165-18b 12-165-18c |
आस्तिका नास्तिकाश्चैव नियताः संयमे परे। अप्रज्ञानं तमोभूतं प्रज्ञानं तु प्रकाशिता।। | 12-165-19a 12-165-19b |
भृत्यान्भोगैर्द्विषो दण्डैर्यो योजयति सोऽर्थवान्। एतन्मतिमतांश्रेष्ठ मतं मम यथातथम्। अनयोस्तु विबोध त्वं वचनं शक्रकण्वयोः।। | 12-165-20a 12-165-20b 12-165-20c |
वैशंपायन उवाच। | 12-165-21x |
तथा धर्मार्थकुशलौ माद्रीपुत्रावनन्तरम्। नकुलः सहदेवश्च वाक्यमूचतुरुत्तमम्।। | 12-165-21a 12-165-21b |
आसीनश्च शयानश्च विचरन्नपि वा स्थितः। अर्थयोगं दृढं कुर्याद्योगैरुच्चावचैरपि।। | 12-165-22a 12-165-22b |
अस्मिंस्तु वै विनिर्वृत्ते दुर्लभे परमप्रिये। इह कामानवाप्नोति प्रत्यक्षं नात्र संशयः।। | 12-165-23a 12-165-23b |
योऽर्थो धर्मेण संयुक्तो धर्मो यश्चार्थसंयुतः। मध्विवामृतसंसृष्टं तस्मादेतौ मताविह।। | 12-165-24a 12-165-24b |
अनर्थस्य न कामोस्ति तथाऽर्थोऽधर्मिणः कुतः। तस्मादुद्विजले लोको धर्मार्थाभ्यां बहिष्कृतात्।। | 12-165-25a 12-165-25b |
तस्माद्धर्मप्रधानेन साध्योऽर्थः संयतात्मना। विश्वस्तेषु हि भूतेषु कल्पते सर्वमेव हि।। | 12-165-26a 12-165-26b |
धर्मं समाचरेत्पूर्वं ततोऽर्थं धर्मसंयुतम्। ततः कामं चरेत्पश्चात्सिद्धार्थस्य हि तत्फलम्।। | 12-165-27a 12-165-27b |
वैशंपायन उवाच। | 12-165-28x |
विरेमतुस्तु तद्वाक्यमुक्त्वा तावश्विनोः सुतौ। भीमसेनस्ततो वाक्यमिदं वक्तुं प्रचक्रमे।। | 12-165-28a 12-165-28b |
नाकामः कामयत्यर्थं नाकामो धर्ममिच्छति। नाकामः कामयानोऽस्ति तस्मात्कामो विशिष्यते।। | 12-165-29a 12-165-29b |
कामेन युक्ता ऋषयस्तपस्येव समाहिताः। पलाशाः शाकमूलाशा वायुभक्षाः सुसंयताः।। | 12-165-30a 12-165-30b |
वेदोपवेदेष्वपरे युक्ताः स्वाध्यायपारगाः। श्राद्धे यज्ञक्रियायां च तथा दानप्रतिग्रहे।। | 12-165-31a 12-165-31b |
वणिजः कर्षका गोपाः कारवः शिल्पिनस्तथा। देशधर्मकृतश्चैव युक्ताः कामेन कर्मसु।। | 12-165-32a 12-165-32b |
समुद्रं वा विशन्त्यन्ये नराः कामेन संयुताः। कामो हि विविधाकारः सर्वं कामेन संततम्।। | 12-165-33a 12-165-33b |
नास्ति नासीन्न भविता भूतं काममृते परम्। एतत्सारं महाराज धर्मार्थावत्र संश्रितौ।। | 12-165-34a 12-165-34b |
नवनीतं यथा दध्नस्तथा कामोऽर्थधर्मतः। श्रेयस्तैलं न पिण्याको घृतं श्रेय उदश्वितः।। | 12-165-35a 12-165-35b |
श्रेयः पुष्पफलं काष्ठात्कामो धर्मार्थयोर्वरः। पुष्पतो मध्विव परं कामात्संजायते सुखम्। कामो धर्मार्थयोर्योनिः कामश्चाथ तदात्मकः।। | 12-165-36a 12-165-36b 12-165-36c |
[नाकामतो ब्राह्मणाः स्वन्नमर्था न्नाकामतो ददति ब्राह्मणेभ्यः। नाकामतो विविधा लोकचेष्टा तस्मात्कामः प्राक् त्रिवर्गस्य दृष्टः।।] | 12-165-37a 12-165-37b 12-165-37c 12-165-37d |
सुचारुवेषाभिरलंकृताभि र्मदोत्कटाभिः प्रियवादिनीभिः। रमस्व योषिद्भिरुपेत्य कामं कामो हि राजन्परमाभिरामः।। | 12-165-38a 12-165-38b 12-165-38c 12-165-38d |
बुद्धिर्ममैषा परिखास्थितस्य माभूद्विचारस्तव धर्मपुत्र। स्वात्संहितं सद्भिरफल्गुसार मसस्तवाक्यं परमानृशंसम्।। | 12-165-39a 12-165-39b 12-165-39c 12-165-39d |
वर्मार्थकामाः सममेव सेव्या यो ह्येकभक्तः स नरो जघन्यः। द्वयोस्तु सक्तं प्रवदन्ति मध्यमं स उत्तमो योऽभिरतस्त्रिवर्गे।। | 12-165-40a 12-165-40b 12-165-40c 12-165-40d |
प्राज्ञः सुहृच्चन्दनसारलिप्तो विचित्रमाल्याभरणैरुपेतः। ततो वचः संग्रहविस्तरेण प्रोक्त्वाऽथ वीरान्विरराम भीमः।। | 12-165-41a 12-165-41b 12-165-41c 12-165-41d |
ततो मुहूर्तादथ धर्मराजो वाक्यानि तेषामनुचिन्त्य सम्यक्। उवाच वाचाऽवितथं स्मयन्वै बहुश्रुतो धर्मभृतां वरिष्ठः।। | 12-165-42a 12-165-42b 12-165-42c 12-165-42d |
वाक्यं निबोधध्वमनन्यभावाः।। | 12-165-43f |
यो वै न पापे निरतो न पुण्ये नार्थे न धर्मे मनुजो न कामे। विमुक्तदोषः समफल्गुसारो विमुच्यते दुःखसुखात्स सिद्धः।। | 12-165-44a 12-165-44b 12-165-44c 12-165-44d |
भूतानि जातीमरणान्वितानि जराविकारैश्च समन्वितानि। भूयश्च तैस्तैरुपसेवितानि मोक्षं प्रशंसन्ति न तं च विद्मः।। | 12-165-45a 12-165-45b 12-165-45c 12-165-45d |
स्नेहेन बद्धस्य न सन्ति तानि चैवं स्वयंभूर्भगवानुवाच। बोधाय निर्वाणपरा भवन्ति तस्मान्न कुर्यात्प्रियमप्रियं च।। | 12-165-46a 12-165-46b 12-165-46c 12-165-46d |
एतच्च मुख्यं न तु कामकारो यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि। भूतानि सर्वाणि विधिर्नियुङ्क्ते विधिर्बलीयानिति वित्त सर्वे।। | 12-165-47a 12-165-47b 12-165-47c 12-165-47d |
न कर्मणाऽप्नोत्यनवाप्यमर्थं यद्भावि तद्वै भवतीति विद्मः। त्रिवर्गहीनोऽपि हि विन्दतेऽर्थं तस्माददो लोकहिताय गुह्यम्।। | 12-165-48a 12-165-48b 12-165-48c 12-165-48d |
वैशंपायन उवाच। | 12-165-49x |
तदग्र्यबुद्धेर्वचनं मनोनुगं समस्तमाज्ञाय तथाहि हेतुमत्। तदा प्रणेदुश्च जहर्षिरे च ते कुरुप्रवीराय च चक्रिरेऽञ्जलिम्।। | 12-165-49a 12-165-49b 12-165-49c 12-165-49d |
सुचारुवर्णाक्षरशब्दभूषितां मनोनुगां निर्गतवाक्यकण्टकाम्। निशम्य तां पार्थिवभाषितां गिरं पार्थस्य सर्वे प्रणता बभूवुः।। | 12-165-50a 12-165-50b 12-165-50c 12-165-50d |
तथैव राजा प्रशशंस् वीर्यवान् पुनश्च पप्रच्छ सरिद्वरासुतम्। धर्मार्थकामेषु विनिश्चयज्ञं ततः परं धर्ममहीनचेतसम्।। | 12-165-51a 12-165-51b 12-165-51c 12-165-51d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 165।। |
12-165-3 त्रिवर्गविजयाय कामक्रोधलोभानां जयाय।। 12-165-12 अव्यतिक्रमः मर्यादा।। 12-165-16 निस्तन्तवः नैष्ठिकब्रह्मचारिणः।। 12-165-17 श्मश्रुला हीनिषेविण इति झ. पाठः।। 12-165-20 वचनं शुककण्वयोरिति ड.द.पाठः।। 12-165-25 अनर्थस्य अर्थहीस्य। अधर्मिणः धर्महीनस्य।। 12-165-27 अत्र धर्मार्थयोः समत्वेऽपि धर्मस्य पूर्वत्वाद्विदुरमतमेवैतदीषद्भेदेन दर्शितम्।। 12-165-35 उदश्वितः तक्रात्।। 12-165-37 अकामतः कामं विना। केवलार्थात्स्वन्नं मृष्ठान्नं नास्ति।। 12-165-39 परिस्वास्थितस्य परितः खाता परिखा। सर्वतो मूलशोध इत्यर्थः। तत्र स्थितस्य अनृशंसमनिष्टुरम्।। 12-165-40 तयोस्तु दाक्ष्यं प्रवदन्तीति झ. पाठः।। 12-165-43 नैष्ठिकं सिद्धान्तरूपम्। एतेन पूर्वे सर्वे पूर्वपक्षा एवेत्युक्तम्।। 12-165-48 अर्थं मोक्षम्। लोकहितायं मोक्षाय। त्रिवर्गहीनोऽपि गुह्यमर्थं रहस्यं ज्ञानं विन्दते लभते पूर्वोक्तोऽधिकारी।।
शांतिपर्व-164 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-166 |