महाभारतम्-12-शांतिपर्व-315
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति भूतसृष्टिप्रकारादिप्रतिपादकजनकयाज्ञवल्क्यसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-315-1x |
धर्माधर्मविमुक्तं यद्विमुक्तं सर्वसंशयात्। जन्ममृत्युविमुक्तं च विमुक्तं पुण्यपापयोः।। | 12-315-1a 12-315-1b |
यच्छिवं नित्यमभयं नित्यमक्षरमव्ययम्। शुचि नित्यमनायासं तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-315-2a 12-315-2b |
भीष्म उवाच। | 12-315-3x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्। याज्ञवल्क्यस्य संवादं जनकस्य च भारत।। | 12-315-3a 12-315-3b |
याज्ञवल्क्यमृषिश्रेष्ठं दैवरातिर्महायशाः। पप्रच्छ जनको राजा प्रश्नं प्रश्नविदांवरः।। | 12-315-4a 12-315-4b |
जनक उवाच। | 12-315-5x |
कतीन्द्रियाणि विप्रर्षे कति प्रकृतयः स्मृताः। किमव्यक्तं परं ब्रह्म तस्माच्च परतस्तु किम्।। | 12-315-5a 12-315-5b |
प्रभवं चाप्ययं चैव कालसङ्ख्यां तथैव च। वक्तुमर्हसि विप्रेन्द्र त्वदनुग्रहकाङ्क्षिणः।। | 12-315-6a 12-315-6b |
अज्ञानात्परिपृच्छामि त्वं हि ज्ञानमयो निधिः। तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वमेतदसंशयम्।। | 12-315-7a 12-315-7b |
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-315-8x |
श्रूयतामवनीपाल यदेतदनुपृच्छसि। योगानां परमं ज्ञानं साङ्ख्यानां च विशेषतः।। | 12-315-8a 12-315-8b |
त तवाविदितं किंचिन्मां तु जिज्ञासते भवान्। पृष्टेन चापि वक्तव्यमेष धर्मः सनातनः।। | 12-315-9a 12-315-9b |
अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्ता विकाराश्चापि षोडश। आसां तु सप्त व्यक्तानि प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः।। | 12-315-10a 12-315-10b |
अव्यक्तं च महांश्चैव तथाऽहंकार एव च। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।। | 12-315-11a 12-315-11b |
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकारानपि मे शृणु। श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम्।। | 12-315-12a 12-315-12b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च। वाक्च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रं तथैव च।। | 12-315-13a 12-315-13b |
एते विशेषा राजेन्द्रा महाभूतेषु पञ्चसु। बुद्धीन्द्रियाण्यथैतानि सविशेषाणि मैथिल।। | 12-315-14a 12-315-14b |
मनः षोडशकं प्राहुरध्यात्मगतिचिन्तकाः। त्वं चैवान्ये च विद्वांसस्तत्त्वबुद्धिविशारदाः।। | 12-315-15a 12-315-15b |
अव्यक्ताच्च महानात्मा समुत्पद्यति पार्थिव। प्रथमं सर्गमित्येतदाहुः प्राधानिकं बुधाः।। | 12-315-16a 12-315-16b |
महतश्चाप्यहंकार उत्पद्यति नराधिप। द्वितीयं सर्गमित्याहुरेतद्बुद्ध्यात्मकं स्मृतम्।। | 12-315-17a 12-315-17b |
अहंकाराच्च संभूतं मनो भूतगुणात्मकम्। तृतीयः सर्ग इत्येष आहंकारिक उच्यते।। | 12-315-18a 12-315-18b |
मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप। चतुर्थं सर्गमित्येतन्मानसं चिन्तनात्मकम्।। | 12-315-19a 12-315-19b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च। पञ्चमं सर्गमित्याहुर्भौतिकं भूतचिन्तकाः।। | 12-315-20a 12-315-20b |
श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम्। सर्गं तु षष्ठमित्याहुर्बहुचिन्तात्मकं स्मृतम्।। | 12-315-21a 12-315-21b |
अधः श्रोत्रेन्द्रियग्राम उत्पद्यदि नराधिप। सप्तमं सर्गमित्याहुरेतदैन्द्रियकं स्मृतम्।। | 12-315-22a 12-315-22b |
ऊर्ध्वं स्रोतस्तथा तिर्यगुत्पद्यति नराधिप। अष्टमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं स्मृतम्।। | 12-315-23a 12-315-23b |
तिर्यक्स्रोतस्त्वधःस्रोत उत्पद्यति नराधिप। नवमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं बुधाः।। | 12-315-24a 12-315-24b |
एते वै नव सर्गा हि तत्त्वानि च नराधिप। चतुर्विशतिरुक्तानि यथाश्रुतिनिदर्शनम्।। | 12-315-25a 12-315-25b |
अत ऊर्ध्वं महाराज गुणस्यैतस्य तत्त्वतः। महात्मभिरनुप्रोक्तां कालसङ्ख्यां निबोध मे।। | 12-315-26a 12-315-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 315।। |
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