महाभारतम्-12-शांतिपर्व-077
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति केकयराजोपाख्यानकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-77-1x |
केषां प्रभवते राजा वित्तस्य भरतर्षभ। कया च वृत्त्या वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-77-1a 12-77-1b |
भीष्म उवाच। | 12-77-2x |
अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम्। ब्राह्मणानां च ये केचिद्विकर्मस्था भवन्त्युत।। | 12-77-2a 12-77-2b |
विकर्मस्थाश्च नोपेक्ष्या विप्रा राज्ञा कथंचन। इति राज्ञां पुरावृत्तमभिजल्पन्ति साधवः।। | 12-77-3a 12-77-3b |
यस्य स्म विषये राज्ञः स्तेनो भवति वै द्विजः। राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते किल्विषं नृप।। | 12-77-4a 12-77-4b |
अभिशस्तमिवात्मानं मन्यन्ते तेन कर्मणा। तस्माद्राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणानन्वपालयन्।। | 12-77-5a 12-77-5b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। गीतं केकयराजेन हियमाणेन रक्षसा।। | 12-77-6a 12-77-6b |
केकयानामधिपतिं रक्षो जग्राह दारुणम्। स्वाध्यायेनान्वितं राजन्नरण्ये संशितव्रतम्।। | 12-77-7a 12-77-7b |
राजोवाच। | 12-77-8x |
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नायज्वा मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-8a 12-77-8b |
न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान्नाव्रती नाप्यसोमपः। द्विजातिर्विषये मह्यं मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-9a 12-77-9b |
नानाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते विषये मम। नाधीते चाव्रती कश्चिन्मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-10a 12-77-10b |
अध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति च। ददति प्रतिगृह्णन्ति षट्सु कर्मस्ववस्थिताः।। | 12-77-11a 12-77-11b |
पूजिताः संविभक्ताश्च मृदवः सत्यवादिनः। ब्राह्मणा मे स्वकर्मस्था मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-12a 12-77-12b |
न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मविशारदाः। नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति न।। | 12-77-13a 12-77-13b |
ब्राह्मणान्परिरक्षन्ति सङ्ग्रामेष्वपलायिनः। क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-14a 12-77-14b |
कृषिगोरक्षवाणिज्यमुपजीवन्त्यमायया। अप्रमत्ताः क्रियावन्तः सुवृत्ताः सत्यवादिनः।। | 12-77-15a 12-77-15b |
संविभागं दमं शौचं सौहृदं च व्यपाश्रिताः। मम वैश्याः स्वकर्मस्था मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-16a 12-77-16b |
त्रीन्वर्णानुपतिष्ठन्ते यथावदनसूयकाः। मम शूद्राः स्वकर्मस्था मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-17a 12-77-17b |
कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम्। संविभक्ताऽस्मि सर्वेषां मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-18a 12-77-18b |
कुलानुरूपधर्माणां प्रस्थितानां यथाविधि। अव्युच्छेत्ताऽस्मि सर्वेषां मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-19a 12-77-19b |
तपस्विनो मे विषये पूजिताः परिपालिताः। संविभक्ताश्च सत्कृत्य मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-20a 12-77-20b |
नासंविभज्य भोक्ताऽस्मि न विशामि परस्त्रियम्। स्वतन्त्रो जातु न क्रीडे मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-21a 12-77-21b |
नाब्रह्मचारी भिक्षावान्भिक्षुर्वा ब्रह्मचर्यवान्। अनृत्विजा हुतं नास्ति मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-22a 12-77-22b |
`कृतं राज्यं मया सर्वं राज्यस्थेनापि कार्यवत्। नाहं व्युत्क्रामितः सत्यान्मा ममान्तरमाविशः।। ' | 12-77-23a 12-77-23b |
नावजानाम्यहं वैद्यान्न वृद्धान्न तपस्विनः। राष्ट्रे स्वपति जागर्मि मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-24a 12-77-24b |
`शुक्लकर्मास्मि सर्वत्र न दुर्गतिभयं मम। धर्मचारी गृहस्थश्च मा ममान्तरमाविशः।।' | 12-77-25a 12-77-25b |
वेदाध्ययनसंपन्नस्तपस्वी सत्यधर्मवित्। स्वामी सर्वस्य राष्ट्रस्य धीमान्मम पुरोहितः।। | 12-77-26a 12-77-26b |
दानेन दिव्यानभिवाञ्छामि लोकान् सत्येनाथ ब्राह्मणानां च गुप्त्या। शुश्रूषया चापि गुरूनुपैमि न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः।। | 12-77-27a 12-77-27b 12-77-27c 12-77-27d |
न मे राष्ट्रे विधवा ब्रह्मबन्धु र्न ब्राह्मणः कितवो नोत चोरः। नायाज्ययाजी न च पापकर्मा न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः।। | 12-77-28a 12-77-28b 12-77-28c 12-77-28d |
न मे शस्त्रैरनिर्भिन्नं गात्रे व्द्यङ्गुलमन्तरम्। धर्मार्थं युध्यमानस्य मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-29a 12-77-29b |
गोब्राह्मणेभ्यो यज्ञेभ्यो नित्यं स्वस्त्ययनं मम। आशासते जना राष्ट्रे मा ममान्तरमाविशः।। | 12-77-30a 12-77-30b |
राक्षस उवाच। | 12-77-31x |
`नारीणां व्यभिचाराच्च अन्यायाच्च महीक्षिताम्। विप्राणां कर्मदोषाच्च प्रजानां जायते भयम्।। | 12-77-31a 12-77-31b |
अवृष्टिर्मारको दोषः सततं क्षुद्भयानि च। विग्रहश्च सदा तस्मिन्देशे भवति दारुणः।। | 12-77-32a 12-77-32b |
यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो नासुरेभ्यः कथंचन। भयमुत्पद्यते तत्र यत्र विप्राः सुसंयताः।। | 12-77-33a 12-77-33b |
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः पन्नगाश्च सरीसृपाः। मानवान्न जिघांसन्ति यत्र नार्यः पतिव्रताः।। | 12-77-34a 12-77-34b |
ब्राह्मणः क्षत्रिया वैश्या यत्र शूद्राश्च धार्मिकाः। नाऽनावृष्टिभयं तत्र न दुर्भिक्षं न विभ्रमः।। | 12-77-35a 12-77-35b |
धार्मिको यत्र भूपालो न तत्रास्ति पराभवः। उत्पाता न च दृश्यन्ते न दिव्या न च मानुषाः।। | 12-77-36a 12-77-36b |
यस्मात्सर्वास्ववस्थासु धर्ममेवान्ववेक्षसे। तस्मात्प्राप्नुहि कैकेय गृहं स्वस्ति व्रजाम्यहम्।। | 12-77-37a 12-77-37b |
येषां गोब्राह्मणा रक्ष्याः प्रजा रक्ष्याश्च केकय। न रक्षोऽभ्यो भयं तेषां कुत एव तु पातकम्।। | 12-77-38a 12-77-38b |
येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्म परं बलम्। सुरक्षितास्तथा विप्रास्ते वै स्वर्गजितो नृपाः।। | 12-77-39a 12-77-39b |
भीष्म उवाच। | 12-77-40x |
तस्माद्द्विजातीन्रक्षेत ते हि रक्षन्ति रक्षिताः। आशीरेषां भवेद्राजन्राज्ञां सम्यक्प्रवर्तताम्।। | 12-77-40a 12-77-40b |
तस्माद्राज्ञा विशेषेण विकर्मस्था द्विजातयः। नियम्याः संविभज्याश्च प्रजानुग्रहकारणात्।। | 12-77-41a 12-77-41b |
एवं यो वर्तते राजा पौरजानपदेष्विह। अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम्।। | 12-77-42a 12-77-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77।। |
12-77-8 मामकान्तरमाविभः इति ट. ड.थ. पाठः। मामकान्तरमाविशः इति झ. पाठः।। 12-77-27 न पापकारी न च पापवक्ता इति ट.ड.थ.द. पाठः।।
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