महाभारतम्-12-शांतिपर्व-123
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धर्मादिनिरूपणपूर्वकं कामन्दारिष्टसंवादानुवादेन धर्मत्यागिनः प्रायश्चित्तप्रकारादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-123-1x |
तात धर्मार्थकामानां श्रोतुमिच्छामि निश्चयम्। लोकयात्रा हि कार्त्स्न्येन त्रिष्वेतेषु प्रतिष्ठिता।। | 12-123-1a 12-123-1b |
धर्मार्थकामाः किंमूलाः प्रभवः प्रलयश्च कः। अन्योन्यं चानुषज्जन्ते वर्तन्ते च पृथक्पृथक्।। | 12-123-2a 12-123-2b |
भीष्म उवाच। | 12-123-3x |
य एते स्युः सुमनसो लोकसंस्थार्थनिश्चये। कामप्रभवसंस्थासु सज्जन्ते च त्रयस्तदा।। | 12-123-3a 12-123-3b |
धर्ममूलोऽर्थ इत्युक्तः कामोऽर्थफलमुच्यते। संकल्पमूलास्ते सर्वे संकल्पो विषयात्मकः।। | 12-123-4a 12-123-4b |
विषयाश्चैव कार्त्स्न्येन सर्व आहारसिद्धये। मूलमेतन्त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते।। | 12-123-5a 12-123-5b |
धर्मः शरीरसंगुप्तिर्धर्मार्थश्चार्थ इष्यते। कामो रतिफलश्चात्र सर्वे रतिफलाः स्मृताः।। | 12-123-6a 12-123-6b |
सन्निकृष्टांश्चरेदेतान्न चैतान्मनसा त्यजेत्। विमुक्तस्तपसा सर्वान्धर्मादीन्कामनैष्ठिकान्।। | 12-123-7a 12-123-7b |
श्रेष्ठबुद्धिस्त्रिवर्गस्य उदयं प्राप्नुयात्क्षणात्। [कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्यर्थो न वा पुनः।।] | 12-123-8a 12-123-8b |
अर्थार्थमन्यद्भवति विपरीतमथापरम्। अनर्थार्थमवाप्यार्थमन्यत्राद्योपकारकम्।] बुद्ध्या बुद्ध इहार्थेन तदह्ना तु निकृष्टया।। | 12-123-9a 12-123-9b 12-123-9c |
अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य निगूहनम्। संप्रमोहमलः कामो भूयस्तद्गुणवर्धितः।। | 12-123-10a 12-123-10b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। अरिष्टस्य च संवादं कामन्दस्य च भारत।। | 12-123-11a 12-123-11b |
कामन्दमृषिमासीनमभिवाद्य नराधिपः। आङ्गोरिष्ठोऽथ पप्रच्छ कृत्वा समयमव्ययम्।। | 12-123-12a 12-123-12b |
यः पापं कुरुते राजा काममोहबलात्कृतः। प्रत्यासन्नस्य तस्यर्षे किं स्यात्पापप्रणाशनम्।। | 12-123-13a 12-123-13b |
अधर्मं धर्म इति च यो मोहादाचरेन्नरः। तं चापि प्रथितं लोके कथं राजा निवर्तयेत्।। | 12-123-14a 12-123-14b |
कामन्द उवाच। | 12-123-15x |
यो धर्मार्थौ परित्यज्य काममेवानुवर्तते। स धर्मार्थपरित्यागात्प्रज्ञानाशमिहार्च्छति।। | 12-123-15a 12-123-15b |
प्रज्ञानाशात्मको मोहस्तथा धर्मार्थनाशकः। तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते।। | 12-123-16a 12-123-16b |
दुराचारान्यदा राजा प्रदुष्टान्न नियच्छति। तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव।। | 12-123-17a 12-123-17b |
तं प्रजा नानुरज्यन्ते न विप्रा न च साधवः। ततः संक्षयमाप्नोति तथा वध्यत्वमेव च।। | 12-123-18a 12-123-18b |
अपध्वस्तस्त्ववमतो दुःखं जीवति जीवितम्। जीवते यदपध्वस्तः शुद्धं मरणमेव तत्।। | 12-123-19a 12-123-19b |
अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिवर्तनम्। सेवितव्या त्रयी विद्या सत्कारो ब्राह्मणेषु च।। | 12-123-20a 12-123-20b |
महामना भवेद्धर्मे विवहेच्च महाकुले। ब्राह्मणांश्चापि सेवेत क्षमायुक्तान्मनस्विनः।। | 12-123-21a 12-123-21b |
जपेदुदकशीलः स्यात्सुमुखो न च नास्तिकः। धर्मान्वितान्संप्रविशेद्बहिः प्लुत्यैव दुष्कृतम्।। | 12-123-22a 12-123-22b |
प्रसादयेन्मधुरया वाचा वाऽप्यथ कर्मणा। इत्यस्तीति वदेन्नित्यं परेषां कीर्तयन्गुणान्।। | 12-123-23a 12-123-23b |
अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत्। पापान्यपि हि कृच्छ्राणि शमयेन्नात्र संशयः।। | 12-123-24a 12-123-24b |
गुरवो हि परं धर्मं यं ब्रूयुस्तं तथा कुरु। गुरूणां हि प्रसादाद्वै श्रेयः परमवाप्स्यसि।। | 12-123-25a 12-123-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 123।। |
12-123-2 किंमूलाः किमुद्दिश्य क्रियन्त इत्यर्थः। प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः। किमेषामुत्पत्तिस्थानम्। तेषां साहित्यं कथं पृथक्पृथकवच कथमिति चत्वारः प्रश्नाः।। 12-123-3 सूचीकटाहन्यायेन धर्मार्थकामानां साहित्यमाह य इति। ते धर्मार्थकामास्त्रयोऽपि सज्जन्ते युगपदुत्पद्यन्ते।। 12-123-7 स्वर्गादिकं बाह्यं फलं विप्रकृष्टं तदर्था एते विप्रकृष्टाः। आत्मज्ञानरूपं फलं तु सन्निकृष्टं तदर्था एते सन्निकृष्टास्तांश्चरेत् सेवेत। धर्मश्चित्तशुद्ध्यर्थोऽर्थो निष्कामकर्मार्थः कामो देहधारणमात्रार्थः इत्येवमेते सेव्या इत्यर्थः। धर्मादीन्कामनैष्ठिकान्कामान्तान्धर्मार्थकामान्सर्वानपि मनसापि न त्यजेत्किमुत स्वरूपेण न त्यजेदित्यर्थः। कथं तर्ह्येतांस्त्यजेदित्याह तपसा विमुक्त इति। विचारेणैव तेभ्यो विमुक्तो भवेत्। सङ्गफलत्यागपूर्वकं धर्मादीननुतिष्ठेदिति भावः।। 12-123-8 अस्मात्कर्मण इदं फलं प्राप्स्ये इति बुद्धिपूर्वं कृतेनापि कर्मणार्थः कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति व्यभिचारः।। 12-123-9 अर्थार्थं धर्मादपि अन्यत् सेवाकृष्यादिकं भवतीति न धर्मैकलभ्योऽर्थं इत्यर्थार्थं धर्मो न कार्यः। प्रत्युत विपरीतमपि अपरं मतमस्ति केचिद्धठेनैवार्थो भवति स्वभावेन वा दैवेन वेति मन्यत इति तदर्थमलं धर्मेणेत्यर्थः। एवं धर्मस्यार्थहेतुत्वं दूरीकृत्यार्थस्यापि धर्महेतुत्वं दूषयति। अर्थमवाप्याऽपि जगदनर्थार्थमपायार्थं भवति। तथाहि धनमत्तः सर्वं पापं करोतीति नार्थेन धर्मोत्पत्तिर्नित्यास्ति। अर्थं विनापि धर्मोत्पत्तिरस्तीत्याहान्यत्राद्योपकारकम्। स्वार्थे त्रल्। अन्यत्रान्यदेवोपवासव्रतादिकं आद्यस्य धर्मस्योपकारकं वर्धकं भवति।। 12-123-10 अपध्यानं फलाभिसन्धिः। निगूहनं दानभोगयोरप्रतिपादनम्।। 12-123-13 प्रत्यासन्नस्य पश्चात्तप्तस्य।। 12-123-20 एवं निन्दितस्य कर्तव्यमाह अत्रेति।। 12-123-23 तवास्मीति वदेन्नित्यं इति झ. पाठः।।
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