महाभारतम्-12-शांतिपर्व-156
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति लोभादीनामनर्थहेतुत्वकथपूर्वकं तद्वतां गर्हणम्।। 1।। तथा सत्सङ्गस्य लोभादिजयीपायत्वसूचनाय सतां प्रशंसनपूर्वकं तत्पूजाविधानम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-156-1x |
पापस्य यदधिष्ठानं यतः पापं प्रवर्तते। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन भरतर्षभ।। | 12-156-1a 12-156-1b |
भीष्म उवाच। | 12-156-2x |
पापस्य यदधिष्ठानं तच्छृणुष्व नराधिप। एको लोभो महाग्राहो लोभात्पापं प्रवर्तते।। | 12-156-2a 12-156-2b |
अतः पापमधर्मश्च तथा दुःखमनुत्तमम्। निकृत्या मूलमेतद्धि येन पापकृतो जनाः।। | 12-156-3a 12-156-3b |
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रवर्तते। लोभान्मोहश्च माया च मानस्तम्भः परासुता।। | 12-156-4a 12-156-4b |
अक्षमा ह्रीपरित्यागः श्रीनाशो धर्मसंक्षयः। अभिध्याऽप्रख्यता चैव सर्वं लोभात्प्रवर्तते।। | 12-156-5a 12-156-5b |
अत्यागश्च कुतर्कश्च विकर्मसु च याः क्रियः। कुलविद्यामदश्चैव रूपैश्वर्यमदस्तथा।। | 12-156-6a 12-156-6b |
सर्वभूतेष्वभिद्रोहः सर्वभूतेष्वसत्कृतिः। सर्वभूतेष्वविश्वासः सर्वभूतेष्वनार्जवम्।। | 12-156-7a 12-156-7b |
हरणं परवित्तानां परदाराभिमर्शनम्। वाग्वेगो मनसो वेगो निन्दावेगस्तथैव च।। | 12-156-8a 12-156-8b |
उपस्थोदरयोर्वेगो मृत्युवेगश्च दारुणः। ईर्ष्यावेगश्च बलवान्मिथ्यावेगश्च दुर्जयः।। | 12-156-9a 12-156-9b |
रसवेगश्च दुर्वार्यः श्रोत्रवेगश्च दुःसह। कुत्सा विकत्था मात्सर्यं पापं दुष्कर्मकारिता। साहसानां च सर्वेषामकार्याणां क्रियास्तथा।। | 12-156-10a 12-156-10b 12-156-10c |
आतौ बाल्ये च कौमारे यौवने चापि मानवाः। न त्यजन्त्यात्मकर्मैकं यन्न जीर्यति जीर्यतः।। | 12-156-11a 12-156-11b |
यो न पूरयितुं शक्यो लोभः प्रीत्या कथंचन। नित्यं गम्भीरतोयाभिरापगाभिरिवोदधिः।। | 12-156-12a 12-156-12b |
न प्रहृष्यति यो लोभैः कामैर्यश्च न तृप्यति। यो न देवैर्न गन्धर्वैर्नासुरैर्न महोरगैः।। | 12-156-13a 12-156-13b |
ज्ञायते नृप तत्त्वेन सर्वैर्भूतगणैस्तथा। स लोभः सह मोहेन विजेतव्यो जितात्मना।। | 12-156-14a 12-156-14b |
दम्भो द्रोहश्च निन्दा च पैशून्यं मत्सरस्तथा। भवन्त्येतानि कौरव्य लुब्धानामकृतात्मनाम्।। | 12-156-15a 12-156-15b |
सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्तो बहुश्रुताः। छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्तीहाल्पबुद्धयः।। | 12-156-16a 12-156-16b |
द्वेपक्रोधप्रसक्ताश्च शिष्टाचारबहिष्कृताः। अन्तःक्षुरा वाङ्भधुराः कृपाश्छन्नास्तृणैरिव।। | 12-156-17a 12-156-17b |
धर्मवैतंसिकाः क्षुद्रा मुष्णन्ति ध्वजिनो जगत्। कुर्वते च बहून्मार्गांस्तान्हेतुबलमाश्रिताः। सर्वमार्गान्विलुम्पन्ति लोभज्ञानेष्ववस्थिताः।। | 12-156-18a 12-156-18b 12-156-18c |
धर्मस्य ह्रियमाणस्य लोभग्रस्तैर्दुरात्मभिः। याया विक्रियते संस्था ततः साऽपि प्रपद्यते।। | 12-156-19a 12-156-19b |
दर्पः बोधो मदः स्वप्नो हर्षः शोकोऽभिमानिता। एत हि कौरव्य दृश्यन्ते लुब्धबुद्धिषु।। | 12-156-20a 12-156-20b |
एताना टान्बुद्धस्व नित्यं लोभसमन्वितान्। शिष्टांस्तु परिपृच्छेथा यान्वक्ष्यामि शुचिव्रतान्।। | 12-156-21a 12-156-21b |
येष्वावृत्तिभयं नास्ति परलोकभयं न च। नामिपेषु प्रसङ्गोऽस्ति न प्रियेष्वप्रियेषु च।। | 12-156-22a 12-156-22b |
शिष्टाचारः प्रियो येषु दमो येषु प्रतिष्ठितः। सुखं दुःखं समं येषां सत्यं येषां परायणम्।। | 12-156-23a 12-156-23b |
दातारो न ग्रहीतारो दयावन्तस्नथैव च। पितृदेवातिथेयाश्च नित्योद्युक्तास्तथैव च।। | 12-156-24a 12-156-24b |
सर्वोपकारिणो वीराः सर्वधर्मानुपालकाः। सर्वभूतहिताश्चैव सर्वदेयाश्च भारत।। | 12-156-25a 12-156-25b |
न ते चालयितुं शक्या धर्मव्याहारकारिणः। न तेषां भिद्यते वृत्तं यत्पुरा साधुभिः कृतम्।। | 12-156-26a 12-156-26b |
न त्रासिनो न चपला न रौद्राः सत्पथे स्थिताः। ते सेव्याः साधुभिर्नित्यमसाधूंश्च विवर्जयेत्।। | 12-156-27a 12-156-27b |
कामक्रोधव्यपेता ये निर्ममा निरहंकृताः। सुव्रताः स्थिरमर्यादास्तानुपास्व च पृच्छ च।। | 12-156-28a 12-156-28b |
न वागर्थं यशोर्थं वा धर्मस्तेपां युधिष्ठिर।। अवश्यं कार्य इत्येव शरीरस्य क्रियास्तथा।। | 12-156-29a 12-156-29b |
त भयं क्रोधचापल्ये न शोकस्तेषु विद्यते। न धर्मध्वजिनश्चैव न गुह्यं किंचिदास्थिताः।। | 12-156-30a 12-156-30b |
येष्वलोभस्तथाऽमोहो ये च सत्यार्जवे स्थिताः। तेषु कौन्तेय रज्येथा येषां न भ्रश्यते पुनः।। | 12-156-31a 12-156-31b |
ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च। निर्ममा निरहंकाराः सत्वस्थाः समदर्शिनः।। | 12-156-32a 12-156-32b |
लाभालाभौ सुखदुःखे च तात प्रियाप्रिये मरणं जीवितं च। समानि येषां स्थिरविक्रमाणां बुभुत्सतां सत्यपथे स्थितानाम्।। | 12-156-33a 12-156-33b 12-156-33c 12-156-33d |
धर्मप्रियांस्तान्सुमहानुभावान् दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्चयेथाः। दैवात्सर्वे गुणवन्तो भवन्ति शुभाशुभे वाक्प्रलापास्तथाऽन्ये।। | 12-156-34a 12-156-34b 12-156-34c 12-156-34d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 156।। |
12-156-2 ग्राह इव ग्राहो ग्रासकर्ता।। 12-156-3 येन लोभेन जनाः पापकृतो भवन्ति।। 12-156-4 परासुता पराधीनप्राणत्वम्।। 12-156-5 अभिध्या चिन्ता। अप्रख्यता अप्रकीतिः। अभिध्याऽप्रावृता चैवेति ड. थ. पाठः।। 12-156-6 अत्यागादयोऽकार्यक्रियान्ताः सर्वे दोषाः लोभात् प्रवर्तन्त इति पूर्वोणान्वयः।। 12-156-11 जातौ जन्मनि।। 12-156-12 यो न पूरयितुं शक्य इत्यादीनां स लोभो जेतव्य इति तृतीयेनान्वयः।। 12-156-16 अल्पेऽपि धनादौ बुद्धिर्येषां पवुद्धयो लुब्धा इत्यर्थः।। 12-156-18 धर्मवैतंसिकाः धर्मव्याजेने एन् हिंसन्तः। ध्वजिनो धर्मख्यापकाः। हेतुबलमिति अन्यं संतोपहेतुतया पारदार्यादेरपि धर्मत्वं वर्णयन्तीति भावः।। 12-156-19 संस्था स्थितिः। विक्रियतेऽन्यथा भवति।। 12-156-25 सर्वं प्राणपर्यन्तमपि देयं परार्थे दातुं योग्यं येषां ते।। 12-156-28 पृच्छ च धर्ममिति शेषः।। 12-156-29 क्रिया आहारादयः। न धनार्थमिति झ. पाठः।। 12-156-30 गुह्यं गोपनीयम्।। 12-156-31 अमोह इति च्छेदः। येषां वृत्तमिति शेषः।। 12-156-34 हे शुभ हे भद्र, सर्वे वाक्प्रलापा गुणवन्तो भवन्ति। अन्ये तु मूढानां वाक्प्रलापा अशुभेऽशुभार्थमेव भवन्तीति शेषः।।
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