महाभारतम्-12-शांतिपर्व-356
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नरनारायणानुज्ञानेन नारदेन स्वाश्रमंप्रति गमनम्।। 1।।
वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति श्रीव्यासमाहात्म्यकथनम्।। 2।।
सौतिना श्रीनारायणगुणवर्णनपूर्वकं शौनकादिभ्यस्तदनुग्रहाशंसनम्।। 3।।
वैशंपायन उवाच। | 12-356-1x |
श्रुत्वैतन्नारदो वाक्यं नरनारायणेरितम्। अत्यन्तं भक्तिमान्देवे एकान्तित्वमुपेयिवान्।। | 12-356-1a 12-356-1b |
उषित्वा वर्षसाहस्रं नरनारायणाश्रमे। श्रुत्वा भगवदाख्यानं दृष्ट्वा च हरिमव्ययम्। जगाम हिमवत्कुक्षावाश्रमं स्वं सुरार्चितम्।। | 12-356-2a 12-356-2b 12-356-2c |
तावपि ख्यातयशसौ नरनारायणावृषी। तस्मिन्नेवाश्रमे रम्ये तेपतुस्तप सत्तमम्।। | 12-356-3a 12-356-3b |
त्वमप्यमितविक्रान्तः पाण्डवानां कुलोद्वहः। पावितात्माऽद्य संवृत्तः श्रुत्वेमामादितः कथाम्।। | 12-356-4a 12-356-4b |
नैव तस्यापरो लोको नायं पार्थिवसत्तम। कर्मणा मनसा वाचा यो द्विष्याद्विष्णुमव्ययम्।। | 12-356-5a 12-356-5b |
मज्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः। यो द्विष्याद्विबुधश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम्।। | 12-356-6a 12-356-6b |
कथं नाम भवेद्द्वेष्य आत्मा लोकस्य कस्यचित्। आत्मा हि पुरुषव्याघ्र ज्ञेयो विष्णुरिति श्रुतिः।। | 12-356-7a 12-356-7b |
य एष गुरुरस्माकमृषिर्गन्धवतीसुतः। तेनैतत्कथितं तात माहात्म्यं परमात्मनः। तस्माच्छ्रुतं मया चेदं कथितं च तवानघ।। | 12-356-8a 12-356-8b 12-356-8c |
नारदेन तु संप्राप्तः सरहस्यः ससंग्रहः। एष धर्मो जगन्नाथात्साक्षान्नारायणान्नृप।। | 12-356-9a 12-356-9b |
एवमेष महान्धर्मः स ते पूर्वं नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः।। | 12-356-10a 12-356-10b |
कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम्। को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत्। धर्मान्नानाविधांश्चैव को ब्रूयात्तमृते प्रभुम्।। | 12-356-11a 12-356-11b 12-356-11c |
वर्ततां ते महायज्ञो यथासंकल्पितस्त्वया। संकल्पिताश्वमेधस्त्वं श्रुतधर्मा च तत्त्वतः।। | 12-356-12a 12-356-12b |
सौतिरुवाच। | 12-356-13x |
एतत्तु महदाख्यानं श्रुत्वा पारीक्षितो नृपः। ततो यज्ञसमाप्त्यर्थं क्रियाः सर्वाः समारभत्।। | 12-356-13a 12-356-13b |
नारायणीयमाख्यानमेतत्ते कथितं मया। पृष्टेन शौनकाद्येह नैमिषारण्यवासिषु।। | 12-356-14a 12-356-14b |
नारदेन पुरा यद्वै गुरवे तु निवेदितम्। ऋषीणां पाण्डवानां च शृण्वतोः कृष्णभीष्मयोः।। | 12-356-15a 12-356-15b |
स हि परमर्षिर्जनभुवनपतिः पृथुधरणिधरः श्रुतिविनयपरः। शमनियमनिधिर्यमनियमपरो द्विजवर सहितस्तव च भवतु गतिर्हरिरमरहितः।। | 12-356-16a 12-356-16b 12-356-16c 12-356-16d |
भयदो मखभागहरोस्तु शरणं स ते।। | 12-356-17f |
त्रिगुणो विगुणश्चतुरात्मधरः पूर्तेष्टयोश्च फलभागहरः। विदधातु नित्यमजितोऽतिचलो गतिरात्मवतां सुकृतिनामृषीणाम्।। | 12-356-18a 12-356-18b 12-356-18c 12-356-18d |
तं लोकसाक्षिणमजं पुरुषं पुराणं रविवर्णमीश्वरं गतिं बहुशः। प्रणमध्वमेकमतयो यतः सलिलोद्भवोपि तमृषिं प्रणतः।। | 12-356-19a 12-356-19b 12-356-19c 12-356-19d |
स हि लोकयोनिरसृतस्य पदं सूक्ष्मं परायणमचलं हि पदम्। तत्साङ्ख्ययोगिभिरुदाहृतं तं बुद्ध्या यतात्मभिरिदं सनातनम्।। | 12-356-20a 12-356-20b 12-356-20c 12-356-20d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये षट्पञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। |
12-356-15 गुरवे बृहस्पतये।। 12-356-16 स नारायणः।। 12-356-17 कृतधर्मः कृतयुगधर्मः सत्यादिस्तद्विदाम्।। 12-356-18 चत्वारो वासुदेवसंकर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धाख्या आत्मानस्तान्धारयति स तथा। त्रिगुणातिगश्चतुष्पथधरः इति ध. पाठः।। 12-356-19 सलिलमुद्भवो यस्य स नारायणः शेषशायी तमृषिं वासुदेवम्।। 12-356-20 लोकस्याव्यक्तादेर्योनिः। अमृतस्य मोक्षस्य पदं स्थानम्। पदं पदनीयम्।।
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