महाभारतम्-12-शांतिपर्व-238
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सृष्ट्यादिप्रतिपादकव्यासशुकसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-238-1x |
आद्यन्तं सर्वभूतानां ज्ञातुमिच्छामि कौरव। ध्यानं कर्म च कालं च तथैवायुर्युगेयुगे।। | 12-238-1a 12-238-1b |
लोकतत्त्वं च कार्त्स्न्येन भूतानामागतिं गतिम्। सर्गश्च निधनं चैव कुत एतत्प्रवर्तते।। | 12-238-2a 12-238-2b |
`भेदकं भेदतत्वं च तथाऽन्येषां मतं तथा। अवस्थात्रितयं चैव यादृशं च पितामह।।' | 12-238-3a 12-238-3b |
यदि तेऽनुग्रहे बुद्धिरस्मास्विह सतां वर। एतद्भवन्तं पृच्छामि तद्भवान्प्रब्रवीतु मे।। | 12-238-4a 12-238-4b |
पूर्वं हि कथितं श्रुत्वा भृगुभाषितमुत्तमम्।। भरद्वाजस्य विप्रर्षेस्ततो मे बुद्धिरुत्तमा।। | 12-238-5a 12-238-5b |
जाता परमधर्मिष्ठा दिव्यसंस्थानसंस्थिता। ततो भूयस्तु पृच्छामि तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-238-6a 12-238-6b |
भीष्म उवाच। | 12-238-7x |
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्। जगौ यद्भगवान्व्यासः पुत्राय परिपृच्छते।। | 12-238-7a 12-238-7b |
अधीत्य वेदानखिलान्साङ्गोपनिषदस्तथा। अन्विच्छन्नैष्ठिकं कर्म धर्मनैपुणदर्शनात्।। | 12-238-8a 12-238-8b |
कृष्णद्वैपायनं व्यासं पुत्रो वैयासकिः शुकः। पप्रच्छ संशयमिमं छिन्नधर्मार्थसंशयम्।। | 12-238-9a 12-238-9b |
श्रीशुक उवाच। | 12-238-10x |
भूतग्रामस्य र्क्तारं कालज्ञाने च निश्चितम्। `ज्ञानं ब्रह्म च योगं च गवात्मकमिदं जगत्।। | 12-238-10a 12-238-10b |
त्रितये त्वेनमायाति तथा ह्येषोऽपि वा पुनः। केनैव च विभागः स्यात्तुरीयो लक्षणैर्विना।। | 12-238-11a 12-238-11b |
ज्ञानज्ञेयान्तरे कोसौ कोयं भावस्तु भेदवत्। यज्ज्ञानं लक्षणं चैव तेषां कर्तारमेव च।' ब्राह्मणस्य च यत्कृत्यं तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-238-12a 12-238-12b 12-238-12c |
भीष्म उवाच। | 12-238-13x |
तस्मै प्रोवाच तत्सर्वं पिता पुत्राय पृच्छते। अतीतानागते विद्वान्सर्वज्ञः सर्वधर्मवित्।। | 12-238-13a 12-238-13b |
`पृच्छतस्तव सत्पुत्र यथावत्कीर्तयाम्यहम्। शृणुष्वावहितो भूत्वा यथाऽऽवृतमिदं जगत्।। | 12-238-14a 12-238-14b |
कार्यादि कारणान्तं यत्कार्यान्तं कारणादिकम्। ज्ञानं तदुभयं वित्त्वा सत्यं च परमं शुभम्।। | 12-238-15a 12-238-15b |
ब्रह्मेति चाभिविख्यातं तद्वै पश्यन्ति सूरयः। ब्रह्मतेजोमयं भूतं भूतकारणमद्भुतम्।। | 12-238-16a 12-238-16b |
आसीदादौ ततस्त्वाहुः प्राधान्यमिति तद्विदः। त्रिगुणां तां महामायां वैष्णवीं प्रकृतिं विदुः।। | 12-238-17a 12-238-17b |
तदीदृशमनाद्यन्तमव्यक्तमजरं ध्रुवम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं ब्रह्माग्रे वैकृतं च तत्।। | 12-238-18a 12-238-18b |
तद्वै प्रधानमुद्दिष्टं त्रिसूक्ष्मं त्रिगुणात्मकम्। सम्यग्योगगुणं स्वस्थं तदिच्छाक्षोभितं महत्।। | 12-238-19a 12-238-19b |
शक्तित्रयात्मिका तस्य प्रकृतिः कारणात्मिका। अस्वतन्त्रा च सततं विदधिष्ठानसंयुता।। | 12-238-20a 12-238-20b |
स्वभावाख्यं समापन्ना मोहविग्रहधारिणी। विविधस्यास्य जीवस्य भोगार्थं समुपागता।। | 12-238-21a 12-238-21b |
यथा संनिधिमात्रेण गन्धक्षोभाय जायते। मनस्तद्वदशेषस्य परात्पर इति स्मृतः।। | 12-238-22a 12-238-22b |
सृष्ट्वा प्रविश्य तत्तस्मिन्क्षोभयामास विष्ठितः। सात्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान्।। | 12-238-23a 12-238-23b |
प्रधानतत्वादुद्भूतो महत्वाच्च महान्स्मृतः। प्रधानतत्वमुद्भूतं महत्तत्वं समावृणोत्।। | 12-238-24a 12-238-24b |
कालात्मनाऽभिभूतं तत्कालोंऽशः परमात्मनः। पुरुषश्चाप्रमेयात्मा स एव इति गीयते।। | 12-238-25a 12-238-25b |
त्रिगुणोसौ महाज्ञातः प्रधान इति वै श्रुतिः।। | 12-238-26a |
सात्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधात्मकः। त्रिविधोऽयमहङ्कारो महत्तत्वादजायत।। | 12-238-27a 12-238-27b |
तामसोऽसावहङ्कारो भूतादिरिति संज्ञितः। भूतानामादिभूतत्वाद्रक्ताहिस्तामसः स्मृतः।। | 12-238-28a 12-238-28b |
भूतादिः स विकुर्वाणः शिष्टं तन्मात्रकं ततः। ससर्ज शब्दं तन्मात्रमाकाशं शब्दलक्षणम्।। | 12-238-29a 12-238-29b |
शब्दलक्षणमाकाशं शब्दतन्मात्रमावृणोत्। तेन संपीड्यमानस्तु स्पर्शमात्रं ससर्ज ह।। | 12-238-30a 12-238-30b |
शब्दमात्रं तदाकाशं स्पर्शमात्रं समावृणोत्। ससर्ज वायुस्तेनासौ पीड्यमान इति श्रुतिः।। | 12-238-31a 12-238-31b |
स्पर्शमात्रं तदा वायू रूपमात्रं समावृणोत्। तेन संपीड्यमानस्तु ससर्जाग्निमिति श्रुतिः।। | 12-238-32a 12-238-32b |
रूपमात्रं ततो वह्निं समुत्सृज्य समावृणोत्। तेन संपीड्यमानस्तु रसमात्रं ससर्ज ह।। | 12-238-33a 12-238-33b |
रुपमात्रगतं तेजो रसमात्रं समावृणोत्। तेन संपीड्यमानस्तु ससर्जाम्भ इति श्रुतिः।। | 12-238-34a 12-238-34b |
रसमात्रात्मकं भूयो रसं तन्मात्रमावृणोत्। तेन संपीड्यमानस्तु गन्धं तन्मात्रकं ततः।। | 12-238-35a 12-238-35b |
ससर्ज गन्धं तन्मात्रमावृणोत्करकं ततः। तेन संपीड्यमानस्तु काठिन्यं च ससर्ज ह।। | 12-238-36a 12-238-36b |
पृथिवी जायते तस्माद्गन्धतन्मात्रजात्तथा।। | 12-238-37a |
अम्मयं सर्वमेवेदमापस्तस्तम्भिरे पुनः। भूतानीमानि जातानि पृथिव्यादीनि वै श्रुतिः।। | 12-238-38a 12-238-38b |
भूतानां मूर्तिरेवैषामन्नं चैषां मता बुधैः। तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मात्रा तन्मात्रा इति ते स्मृताः।। | 12-238-39a 12-238-39b |
तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश। एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः।। | 12-238-40a 12-238-40b |
एषामुद्धर्तकः कालो नानाभेदवदास्थितः। परमात्मा च भूतात्मा गुणभेदेन संस्थितः। एक एव त्रिधा भिन्नः करोति विविधाः क्रियाः।। | 12-238-41a 12-238-41b 12-238-41c |
ब्रह्मा सृजति भूतानि पाति नारायणोऽव्ययः। रुद्रो हन्ति जगन्मूर्तिः काल एष क्रियाबुधः।। | 12-238-42a 12-238-42b |
कालोपि तन्मयोचिन्त्यस्त्रिगुणात्मा सनातनः। अव्यक्तोसावचिन्त्योसौ वर्तते भिन्नलक्षणः।। | 12-238-43a 12-238-43b |
कालात्मना त्विदं भिन्नमभिन्नं श्रूयते हि यत्। अनाद्यन्तमजं दिव्यमव्यक्तमजरं ध्रुवम्।' अप्रतर्क्यमविज्ञेयं ब्रह्माग्रे संप्रवर्तते।। | 12-238-44a 12-238-44b 12-238-44c |
काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्कलां ताम्। त्रिंशत्कलश्चापि भवेन्मुहूर्तो भागः कलाया दशमश्च यः स्यात्।। | 12-238-45a 12-238-45b 12-238-45c 12-238-45d |
त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च रात्रिश्च सङ्ख्या मुनिभिः प्रणीता। मासः स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंशु त्संवत्सरो द्वादशमास उक्तः।। | 12-238-46a 12-238-46b 12-238-46c 12-238-46d |
संवत्सरं द्वे अयने वदन्ति सङ्ख्याविदो दक्षिणमुत्तरं च।। | 12-238-47a 12-238-47b |
पहोरात्रौ विभजते सूर्यो मानुषलौकिकौ। रात्रिः स्वप्नाय संयाति चेष्टायै कर्मणामहः।। | 12-238-48a 12-238-48b |
पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तयोः पुनः। शुक्लोऽहः कर्मचेष्टायां कृष्णः स्वप्नाय शर्वरी।। | 12-238-49a 12-238-49b |
दैवे रात्र्यहनी ह्यब्दः प्रविभागस्तयोः पुनः। अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्।। | 12-238-50a 12-238-50b |
ये ते रात्र्यहनी पूर्वं कीर्तिते दैवलौकिके। तयोः सङ्ख्याय वर्षाग्रं ब्राह्ने वक्ष्याम्यहः क्षपे।। | 12-238-51a 12-238-51b |
तेषां संवत्सराग्नाणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः। कृते त्रेतायुगे चैव द्वापरे च कलौ तथा।। | 12-238-52a 12-238-52b |
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्। तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः।। | 12-238-53a 12-238-53b |
इतरेषु ससंध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु। एकापायेन संयान्ति सहस्राणि शतानि च।। | 12-238-54a 12-238-54b |
एतानि शाश्वताँल्लोकान्धारयन्ति सनातनान्। एतद्ब्रह्मविदां तात विदितं ब्रह्म शाश्वतम्।। | 12-238-55a 12-238-55b |
चतुष्पात्सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युग। नाधर्मेणागमः कश्चिद्युगे तस्मिन्प्रवर्तते।। | 12-238-56a 12-238-56b |
इतरेष्वागमाद्धर्मः पादशस्त्ववरोप्यते। `सत्यं शौत्रं तथायुश्च धर्मश्चापैति पादशः।' चौर्यकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते।। | 12-238-57a 12-238-57b 12-238-57c |
अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः। कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वयः।। | 12-238-58a 12-238-58b |
वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीतीह न श्रुतम्। आयूंषि चाशिषश्चैव वेदस्यैव च यत्फलम्।। | 12-238-59a 12-238-59b |
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे। अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्ति कृता इव।। | 12-238-60a 12-238-60b |
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां सत्यमुत्तमम्। द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेव कलौ युगे।। | 12-238-61a 12-238-61b |
एतां द्वादशसाहस्त्रीं युगाख्यां कवयो विदुः। सहस्रपरिवर्तं तद्ब्राह्मं दिवसमुच्यते।। | 12-238-62a 12-238-62b |
रात्रिस्तु तावती ब्राह्मी तदादौ विश्वमीश्वरः। प्रलयेत्मानमाविश्य सुप्त्वासोऽन्ते विबुध्यते।। | 12-238-63a 12-238-63b |
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणे विदुः। रात्रिं युगसहस्रां तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।। | 12-238-64a 12-238-64b |
प्रतिबुद्धो विकुरुते ब्रह्माक्षय्यं क्षपाक्षये। सृजते च महद्भूतं तस्माद्व्यक्तात्मकं मनः।। | 12-238-65a 12-238-65b |
मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया। आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दे गुणो मतः।। | 12-238-66a 12-238-66b |
आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः। बलवाञ्जायते वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः।। | 12-238-67a 12-238-67b |
वायोरपि विकुर्वाणाज्ज्योतिर्भवति भास्वरम्। रोचनं जनयेच्छुद्धं तद्रूपगुणमुच्यते।। | 12-238-68a 12-238-68b |
ज्योतिषोपि विकुर्वाणाद्भवन्त्यापो रसात्मिकाः। अद्भ्यो गन्धवहा भूमिः पूर्वेषां सृष्टिरुच्यते।। | 12-238-69a 12-238-69b |
`ब्रह्मतेजोमयं शुक्लं यस्य सर्वमिदं जगत्। एकस्य ब्रह्मभूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम्।। | 12-238-70a 12-238-70b |
अहर्मुखे विवुद्धं तत्सृजते विद्यया जगत्। अग्र एव महद्भूतमाशु व्यक्तात्मकं मनः।। | 12-238-71a 12-238-71b |
अभिभूयेह चातिष्ठद्व्यसृदत्सप्त मानसान्। दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम्।। | 12-238-72a 12-238-72b |
मनः सृष्टिं न कुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया। आकाशोजायते तस्मात्तस्य शब्दो गुणो मतः।। | 12-238-73a 12-238-73b |
आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः। बलवाञ्जायते वायुस्तस्य स्पर्शगुणं विदुः।। | 12-238-74a 12-238-74b |
वायोरपि विकुर्वाणाज्ज्योतिर्भूतं तमोनुदम्। रोचिष्णुर्जायते तत्र तद्रूपगुणमुच्यते।। | 12-238-75a 12-238-75b |
ज्योतिषोपि विकुर्वाणाद्भवन्त्यापो रसात्मिकाः। अद्भ्यो गन्धवहा भूमिः पूर्वेषां सृष्टिरुच्यते।।' | 12-238-76a 12-238-76b |
गुणाः पूर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम्। तेषां यावद्गुणं यद्यत्तत्तावद्गुणकं स्मृतम्।। | 12-238-77a 12-238-77b |
उपलभ्याप्सु चेद्गन्धं केचिद्ब्रयुरनैपुणात्। पृथिव्यामेव तं विद्यादपां वायोश्च संश्रितम्।। | 12-238-78a 12-238-78b |
एते सप्तविधात्मानो नानावीर्याः पृथक्पृथक्। नाशक्नुवन्प्रजाः स्रष्टुभसमागम्य कृत्स्नशः।। | 12-238-79a 12-238-79b |
ते समेत्य महात्मानो ह्यन्योन्यमभिसंश्रिताः। शरीराश्रयणं प्राप्तास्ततः पुरुष उच्यते।। | 12-238-80a 12-238-80b |
श्रयणाच्छरीरी भवति मूर्तिमान्षोडशात्मकः। तमाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मणा।। | 12-238-81a 12-238-81b |
सर्वभूतान्युपादाय तपसश्चरणाय हि। आदिकर्ता महाभूतं तमेवाहुः प्रजापतिम्।। | 12-238-82a 12-238-82b |
स वै सृजति भूतानि स एव पुरुषः परः। अजो जनयते ब्रह्मा देवर्षिपितृमानवान्।। | 12-238-83a 12-238-83b |
लोकान्नदीः समुद्रांश्च दिशः शैलान्वनस्पतीन्। नरकिन्नररक्षांसि वयः पशुमृगोरगान्। अव्ययं च व्ययं चैव द्वयं स्थावरजङ्गमम्।। | 12-238-84a 12-238-84b 12-238-84c |
तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे। तान्येव प्रतिपाद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।। | 12-238-85a 12-238-85b |
हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृत्तानृते। तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते।। | 12-238-86a 12-238-86b |
महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु। विनियोगं च भूतानां धातैव विदधात्युत।। | 12-238-87a 12-238-87b |
केचित्पुरुषकारं तु प्राहुः कर्मविदो जनाः। दैवमित्यपरे विप्राः स्वभावं भूतचिन्तकाः।। | 12-238-88a 12-238-88b |
पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः। त्रय एतेऽपृथग्भूता अविवेकः कथंचन।। | 12-238-89a 12-238-89b |
एवमेतच्च दैवं च द्भूतं सृजते जगत्। कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्वस्थाः समदर्शिनः।। | 12-238-90a 12-238-90b |
ततो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः। तेन सर्वानवाप्नोति यान्कामान्मनसेच्छति।। | 12-238-91a 12-238-91b |
तपसा तदवाप्नोति यद्भूतं सृजते जगत्। स तद्भूतश्च सर्वेषां भूतानां भवति प्रभुः।। | 12-238-92a 12-238-92b |
ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम्। अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा।। | 12-238-93a 12-238-93b |
ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु सृष्टयः। नाम रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्।। | 12-238-94a 12-238-94b |
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः। नामधेयानि चर्षीणां याश्च वेदेषु सृष्टयः। शर्वर्यन्तेषु जातानामन्येभ्यो विदधात्यजः।। | 12-238-95a 12-238-95b 12-238-95c |
नामभेदतपः कर्मयज्ञाख्या लोकसिद्धये। आत्मसिद्धिस्तु वेदेषु प्रोच्यते दशभिः क्रमैः।। | 12-238-96a 12-238-96b |
यदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददृष्टिभिः। तदन्तेषु यथायुक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते।। | 12-238-97a 12-238-97b |
कर्मजोऽयं पृथग्भावो द्वन्द्वयुक्तो हि देहिनः। आत्मसिद्धिस्तु विज्ञानाज्जहाति प्रायशो बलम्।। | 12-238-98a 12-238-98b |
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।। | 12-238-99a 12-238-99b |
आलम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः। परिचारयज्ञाः शूद्रास्तु तपोयज्ञा द्विजातयः।। | 12-238-100a 12-238-100b |
त्रेतायुगे विधिस्त्वेष यज्ञानां न कृते युगे। द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा।। | 12-238-101a 12-238-101b |
अपृथग्धर्मिणो मर्त्या ऋक्सामानि यजूंषि च। काम्या इष्टीः पृथक्दृष्ट्वा तपोभिस्तप एव च।। | 12-238-102a 12-238-102b |
त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन्महाबलाः। संयन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः।। | 12-238-103a 12-238-103b |
त्रेतायां संहता वेदा यज्ञा वर्णास्तथैव च। संरोधादायुषस्त्वेते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे।। | 12-238-104a 12-238-104b |
दृश्यन्ते न च दृश्यन्ते वेदाः कलियुगेऽखिलाः। उत्सीदन्ते सयज्ञाश्च केवला धर्मपीडिताः।। | 12-238-105a 12-238-105b |
कृते युगे यस्तु धर्मो ब्राह्मणेषु प्रदृश्यते। आत्मवत्सु तपोवत्सु श्रुतवत्सु प्रतिष्ठितः।। | 12-238-106a 12-238-106b |
स धर्मः प्रैति संयोगं यथाधर्मं युगेयुगे। विक्रियन्ते स्वधर्मस्था वेदवादा यथागमम्।। | 12-238-107a 12-238-107b |
यथा विश्वानि भूतानि वृष्ट्या भूयांसि प्रावृषि। सृज्यन्ते जङ्गमस्थानि तथा धर्मा युगेयुगे।। | 12-238-108a 12-238-108b |
यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये। दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्रह्महरादिषु।। | 12-238-109a 12-238-109b |
विहितं कालनानात्वमनादिनिधनं तथा। कीर्तितं यत्पुरस्तात्ते तत्सूते चाति च प्रजाः।। | 12-238-110a 12-238-110b |
ददाति भवनस्थानं भूतानां संयमो यमः। स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वयुक्तानि भूरिशः।। | 12-238-111a 12-238-111b |
सर्वकालक्रिया वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्। प्रोक्तं ते पुत्र सर्वं वै यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 12-238-112a 12-238-112b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 238।। |
12-238-9 संशयं संशयविषयम्। छिन्नधर्मार्थसंशयं व्यास म्।। 12-238-45 दशपञ्च च स्थात् इति ट. थ. ध. पाठः।। 12-238-54 एकपादेन हीयन्ते इति झ. पाठः।। 12-238-60 अन्ये कलियुगे नॄणां युगह्ना सानुरूपतः इति झ. पाठः।। 12-238-68 रोचिष्णु जायते शुक्रं इति झ. थ. पाठः।। 12-238-89 अविवेकं तु केचन इति झ. पाठः।। 12-238-94 याश्च लोकेषु सृष्टयः इति ट. थ . पाठः।। 12-238-95 याश्च लोकेषु सृष्टयः इति ट. थ. पाठः।। 12-238-97 कर्मयोगेषु लक्ष्यते इति ध. पाठः।। 12-238-100 आलम्भः पशुहिंसा। हविर्व्रीह्यादिकम्। परिचारस्त्रैवर्णिकसेवा। तपो ब्रह्मोपासनम्। आरम्भयज्ञा राजानः इति ट. पाठः। आरम्भयज्ञा वैश्वस्य हविर्यज्ञा नृपस्य तु। इति ध. पाठः।। 12-238-101 विधिरप्रवृत्तप्रवर्तनम्। तत्र त्रेतायामेव नतु कृते। स्वतएव तत्र तत्सिद्धेः।। 12-238-108 तिष्ठन्तीति स्थानि स्थावराणि जङ्गमानि च स्थानि च जङ्गमस्थानि। भूयांसि वृद्धिमत्तराणि।। 12-238-111 एतद्धि प्रभवस्थानं इति झ. ट. पाठः। दधाति भवति स्थानं भूतानां समयो मतं। इति झ. पाठः।। 12-238-112 सर्गः सृष्टिः। कालो दर्शादिः। क्रियां यज्ञश्राद्धादिः। वेदास्तत्प्रकाशकाः। कर्ता तदनुष्ठाता। कार्यं देहादिपरिस्पन्दः। क्रियाफलं स्वर्गः।।
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