महाभारतम्-12-शांतिपर्व-360
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वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति ब्रह्मरुद्रसंवादानुवादः।। 1।।
जनमेजय उवाच। | 12-360-1x |
बहवः पुरुषा ब्रह्मन्नुताहो एक एव तु। को ह्यत्र पुरुषः श्रेष्ठः को वा योनिरिहोच्यते।। | 12-360-1a 12-360-1b |
वैशंपायन उवाच। | 12-360-2x |
बहवः पुरुषा लोके साङ्ग्ययोगविचारणे। नैतदिच्छन्ति पुरुषमेकं कुरुकुलोद्वह।। | 12-360-2a 12-360-2b |
बहनां पुरुषाणां च यथैका योनिरुच्यते। तथा तं पुरुषं विश्वं व्याख्यास्यामि गुणाधिकम्।। | 12-360-3a 12-360-3b |
नमस्कृत्वा च गुरवे व्यासाय विदितात्मने। तपोयुक्ताय दान्ताय वन्द्याय परमपये।। | 12-360-4a 12-360-4b |
इदं पुरुषसूक्तं हि सर्ववेदेषु पार्थिव। ऋतं सत्यं च विख्यातमृपिसिंहेन चिन्तितम्।। | 12-360-5a 12-360-5b |
उत्सर्गेणापवादेन ऋषिभिः कपिलादिभिः। अध्यान्मचिन्तामाश्रित्य शास्त्राण्युक्तानि भारत।। | 12-360-6a 12-360-6b |
समासतेस्तु यद्व्यासः पुरुषैकत्वमुक्तवान्। तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि प्रसादादमितौजसः।। | 12-360-7a 12-360-7b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ब्रह्मणा सह संवादं त्र्यम्बकस्य विशांपते।। | 12-360-8a 12-360-8b |
क्षीरोदस्य समुद्रस्य मध्ये हाटकसप्रभः। वैजयन्त इति ख्यातः पर्वतप्रवरो नृप।। | 12-360-9a 12-360-9b |
तत्राध्यात्मगतिं देव एकाकी प्रविचिन्तयन्। वैराजसदनान्नित्यं वैजयन्तं निपेवते।। | 12-360-10a 12-360-10b |
अथ तत्राऽऽसतस्तस्य चतुर्वक्रस्य धीमतः। ललाटप्रभवः पुत्रः शिव आगाद्यदृच्छया। आकाशेन महायोगी पुरा त्रिनयनः प्रभुः।। | 12-360-11a 12-360-11b 12-360-11c |
ततः खान्निपपाताशु धरणीधरमूर्धनि। अग्रतश्चाभवत्प्रीतो ववन्दे चापि पादयोः।। | 12-360-12a 12-360-12b |
तं पादयोनिंपतितं दृष्ट्वा सव्येन पाणिना। अत्थापयामास तदा प्रभुरेकः प्रजापतिः। उवाच चैनं भगवांश्चिरस्यागतमात्मजम्।। | 12-360-13a 12-360-13b 12-360-13c |
पितामह उवाच। | 12-360-14x |
स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोसि मेऽन्तिकम्। कच्चित्ते कुशलं पुत्र स्वाध्यायतपसोः सदा। नित्यमुग्रतपास्त्वं हि ततः पृच्छामि ते पुनः।। | 12-360-14a 12-360-14b 12-360-14c |
रुद्र उवाच। | 12-360-15x |
त्वत्प्रसादेन भगवन्स्वाध्यायतपसोर्मम। कृशलं चाव्ययं चैव सर्वस्य जगतस्त्वथ।। | 12-360-15a 12-360-15b |
चिरदृष्टोमि भगवन्वैराजसदने मया। ततोऽहं पर्वतं प्राप्तस्त्विमं त्वत्पादसेवितम्।। | 12-360-16a 12-360-16b |
कौतूहलं चापि हि मे एकान्तगमनेन ते। नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति पितामह।। | 12-360-17a 12-360-17b |
किंनु तत्सदनं श्रेष्ठं क्षुत्पिपासाविवर्जितम्। सुरासुरैरध्युपितमृषिभिश्चामितप्रभैः।। | 12-360-18a 12-360-18b |
गन्धर्वैरेप्सरोभिश्च सततं संनिषेवितम्। उत्सृज्येमं गिरिवरमेकाकी प्राप्तवानसि।। | 12-360-19a 12-360-19b |
ब्रह्मोवाच। | 12-360-20x |
वैजयन्तो गिरिवरः सततं सेव्यते मया। अत्रैकाग्रेण मनसा पुरुषश्चिन्त्यते विराट्।। | 12-360-20a 12-360-20b |
रुद्र उवाच। | 12-360-21x |
बहवः पुरुषा ब्रह्मंस्त्वया सृष्टाः स्वयंभुव। सृज्यन्ते चापरे ब्रह्मन्स चैकः पुरुषो विराट्।। | 12-360-21a 12-360-21b |
को ह्यसौ चिन्त्यते ब्रह्मंस्त्वयैकः पुरुषोत्तमः। एतन्मे संशयं छिन्धि महत्कौतूहलं हि मे।। | 12-360-22a 12-360-22b |
ब्रह्मोवाच। | 12-360-23x |
बहवः पुरुषाः पुत्र त्वया ये समुदाहृताः। एवमेतदतिक्रान्तं द्रष्टव्यं नैवमित्यपि।। | 12-360-23a 12-360-23b |
आधारं तु प्रवक्ष्यामि एकस्य पुरुषस्य ते। बहूनां पुरुषाणां स यथैका योनिरुच्यते।। | 12-360-24a 12-360-24b |
तथा तं पुरुषं विश्वं परमं सुमहत्तमम्। निर्गुणं निर्गुणा भूत्वा प्रविशन्ति सनातनम्।। | 12-360-25a 12-360-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 360।। |
12-360-2 साङ्ख्ययोगविचारणा इति ट. पाठः।। 12-360-21 स च कः पुरुषो विराडिति ट. ध. पाठः।।
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