महाभारतम्-12-शांतिपर्व-337
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नारदेन शुकंप्रति ऋषिभ्यः सनत्कुमारोक्तदितवचनानुव।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-337-1x |
एतस्मिन्नन्तरे भूते नारदः पुनरागमत्। शुकं स्वाध्यायनिरतं वेदार्थान्प्रष्टुमीप्सवा।। | 12-337-1a 12-337-1b |
देवर्षि तु शुको दृष्ट्वा नारदं समुपस्यितम्। अर्ध्यपूर्वेण विधिवा वेदोक्तेनाभ्यपूजयत्।। | 12-337-2a 12-337-2b |
नारदोऽयाजवीत्प्रीतो ब्रूहि ब्रह्मविदां वर। केन त्वां श्रेयसा वत्स योजयामीति हृष्टवत्।। | 12-337-3a 12-337-3b |
नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः प्रोवाच भारत। अस्मिँल्लोके हितं यत्स्वात्तेन मां योक्तुमर्हसि।। | 12-337-4a 12-337-4b |
नारद उवाच। | 12-337-5x |
तत्त्वं जिज्ञासतां पूर्वनृषीणां भावितात्मनाम्। सनत्कुमारो भगवानिदं वतनमब्रवीत्।। | 12-337-5a 12-337-5b |
नास्ति विद्यासगं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः। नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।। | 12-337-6a 12-337-6b |
निवृत्तिः कर्मणा पापात्सततं पुण्यशीलता। सद्वृत्तिः सद्वदाचारः श्रेय एवदनुत्तमम्।। | 12-337-7a 12-337-7b |
नानुवयसुखं प्राप्य यः सज्जति न मुच्यते। नालं स दुःखमोक्षाय संयोगो दुःखलक्षणम्।। | 12-337-8a 12-337-8b |
सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धनी। मोहवालावृतो दुःखमिह चामुत्र सोऽश्नुते।। | 12-337-9a 12-337-9b |
सर्वोपागात्तु कामस्व क्रोधस्य च विनिग्रहः। कार्यः श्रेयोर्थिना तौ हि श्रेयोघातार्थमुद्यतौ।। | 12-337-10a 12-337-10b |
नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात्। विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः।। | 12-337-11a 12-337-11b |
आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम्। आत्मज्ञानं परं ज्ञानं न सत्याद्विद्यते परम्।। | 12-337-12a 12-337-12b |
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्। यद्भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं मतं मम।। | 12-337-13a 12-337-13b |
सर्वारम्भपरित्यागी निराशीर्निष्परिग्रहः। येन सर्वं परित्यक्तं स विद्वान्स च पण्डितः।। | 12-337-14a 12-337-14b |
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थान्यश्चरत्यात्मवशैरिह। आसज्जमानः शान्तात्मा निर्विकारः समाहितः।। | 12-337-15a 12-337-15b |
अत्मभूतैरतद्भूतः सह चैव विनैव च। स विमुक्तः परं श्रेयो नचिरेणाधिगच्छति।। | 12-337-16a 12-337-16b |
अदर्शनमसंस्पर्शस्तथाऽसंभाषणं तदा। यस्य भूतैः सह मुने स श्रेयो विन्दते परम्।। | 12-337-17a 12-337-17b |
न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायगणतश्चरेत्। नेदं जन्म समासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित्।। | 12-337-18a 12-337-18b |
आकिञ्चन्यं सुसंतोषो निराशीस्त्वमचापलम्। एतदाहुः परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः।। | 12-337-19a 12-337-19b |
परिग्रहं परित्यज्य भव तात जितेन्द्रियः। अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाभयम्।। | 12-337-20a 12-337-20b |
निरामिषा न शोचन्ति त्यजेदामिषमात्मनः। परित्यज्यामिषं सौभ्य दुःखतापाद्विमोक्ष्यसे।। | 12-337-21a 12-337-21b |
तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना। अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना।। | 12-337-22a 12-337-22b |
गुणसङ्गेष्वनासक्त एकचर्यारतः सदा। ब्राह्मणो नचिरादेव सुखमायात्यनुत्तमम्।। | 12-337-23a 12-337-23b |
द्वन्द्वारामेषु भूतेषु य एको रमते मुनिः। विद्धि प्रज्ञानतृप्तं तं ज्ञानतृप्तो न शोचति।। | 12-337-24a 12-337-24b |
शुभैर्लभति देवत्वं व्यामिश्रेर्जन्म मानुषम्। अशुभैश्चाप्यधोजन्म कर्मभिर्लभतेऽवशः।। | 12-337-25a 12-337-25b |
तत्र मृत्युवशो दुःखैः सततं समभिद्रुतः। संसारे पच्यते जन्तुस्तत्कथं नावबुध्यसे।। | 12-337-26a 12-337-26b |
अहिते हितसंज्ञस्त्वमध्रुवे ध्रुवसंज्ञकः। अनर्थे चार्थसंज्ञस्त्वं किमर्थं नावबुध्यसे।। | 12-337-27a 12-337-27b |
संवेष्ट्यमानं बहुभिर्मोहात्तन्तुभिरात्मजैः। कोशकार इवात्मानं वेष्टयन्नावबुध्यसे।। | 12-337-28a 12-337-28b |
अलं परिग्रहेणेह दोषवान्हि परिग्रहः। कृमिर्हि कोशकारस्तु बध्यते स परिग्रहात्।। | 12-337-29a 12-337-29b |
पुत्रदारकुटुम्बेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः। सरःपङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव।। | 12-337-30a 12-337-30b |
महाजालसमाकृष्टान्स्थले मत्स्यानिवोद्धृतान्। मोहजालसमाकृष्टान्पश्य जन्तून्सुदुःखितान्।। | 12-337-31a 12-337-31b |
कुटुम्बं पुत्रदारांश्च शरीरं संचयाश्च ये। पारक्यमध्रुवं सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम्।। | 12-337-32a 12-337-32b |
यदा सर्वान्परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते। अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं समर्थं नानुतिष्ठसि।। | 12-337-33a 12-337-33b |
अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदैशिकम्। तमः कान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसि।। | 12-337-34a 12-337-34b |
न हि त्वां प्रस्थितं कश्चित्पृष्ठतोऽनुगमिष्यति। सुकृतं दुष्कृतं च त्वां यास्यन्तमनुयास्यतः।। | 12-337-35a 12-337-35b |
विद्या कर्म च शौचं च ज्ञानं च बहुविस्तरम्। अर्थार्थमनुसार्यन्ते सिद्धार्थस्य विमुच्यते।। | 12-337-36a 12-337-36b |
निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः। छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः।। | 12-337-37a 12-337-37b |
रूपकूलां मनःस्रोतां स्पर्शद्वीपां रसावहाम्। गन्धपङ्कां शब्दजलां स्वर्गमार्गदुरावहाम्।। | 12-337-38a 12-337-38b |
क्षमारित्रां सत्यमयीं धर्मस्थैर्यपदाङ्कुराम्। त्यागवाताध्वगां शीघ्रां नौतार्यां तां नदीं तरेत्।। | 12-337-39a 12-337-39b |
त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज। उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज।। | 12-337-40a 12-337-40b |
त्यज धर्ममसंकल्पादधर्मं चाप्यलिप्सया। उभे सत्यानृते बुद्ध्या बुद्धिं परमनिश्चयात्।। | 12-337-41a 12-337-41b |
अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम्। चर्मावनद्धं दुर्गन्धिं पूर्णं मूत्रपुरीषयोः।। | 12-337-42a 12-337-42b |
जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम्। रजस्वलमनित्यं च भूतावासमिमं त्यज।। | 12-337-43a 12-337-43b |
इदं विश्वं जगत्सर्वमजगच्चापि यद्भवेत्। महाभूतात्मकं सर्वं महद्यत्परमाणु च।। | 12-337-44a 12-337-44b |
`महाभूतानि खं वायुरग्निरापस्तथा मही। षष्ठं तु चेतना या तु आत्मा सप्तममुच्यते।' अष्टमं तु मनो ज्ञेयं बुद्धिस्तु नवमी स्मृता।। | 12-337-45a 12-337-45b 12-337-45c |
इन्द्रियाणि च पञ्चैव तमः सत्वं रजस्तथा। इत्येष सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः।। | 12-337-46a 12-337-46b |
सर्वैरिहेन्द्रियार्थैश्च व्यक्ताव्यक्तैर्हि संहितः। चतुर्विशक इत्येष व्यक्ताव्यक्तमयो गणः।। | 12-337-47a 12-337-47b |
एतैः सर्वैः समायुक्तः पुमानित्यभिधीयते। त्रिवर्गं तु सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा।। | 12-337-48a 12-337-48b |
य इदं वेद तत्त्वेन स वेद प्रभवाप्ययौ। पारम्पर्येह बोद्धव्यं ज्ञानानां यच्च किंचन।। | 12-337-49a 12-337-49b |
इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्थितिः। अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम्।। | 12-337-50a 12-337-50b |
इन्द्रियैर्नियतैर्देही धाराभिरिव तर्प्यते। लोके विततमात्मानं लोकांश्चात्मनि पश्यति।। | 12-337-51a 12-337-51b |
परावरदृशः शक्तिर्ज्ञानमूला न नश्यति। पश्यतः सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा।। | 12-337-52a 12-337-52b |
ब्रह्मभूतस्य संयोगो नाशुभेनोपपद्यते। ज्ञानेन विविधान्क्लेशानतिवृत्तस्य मोहजान्।। | 12-337-53a 12-337-53b |
लोके बुद्धिप्रकाशेन लोकमार्गो न रिष्यते। अनादिनिधनज्ञं तमात्मनि स्थितमव्ययम्।। | 12-337-54a 12-337-54b |
अकर्तारममूर्तं च भगवानाह तीर्थवित्। यो जन्तुः स्वकृतैस्तैस्तैः कर्मभिर्नित्यदुःखितः।। | 12-337-55a 12-337-55b |
स दुःखप्रतिघातार्थं हन्ति जन्तूननेकधा। ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यन्नवं बहु।। | 12-337-56a 12-337-56b |
तप्यतेऽथ पुनस्तेन भुक्त्वा पथ्यमिवातुरः। अजस्रमेव मोहान्धो दुःखेषु सुखसंज्ञितः।। | 12-337-57a 12-337-57b |
बध्यते मथ्यते चैव कर्मभिर्मन्थवत्सदा। ततो निबद्धः स्वां योनिं कर्मणामुदयादिह।। | 12-337-58a 12-337-58b |
परिभ्रमति संसारं चक्रवद्बहुवेदनः। सत्वं निर्वृत्तबन्धस्तु निवृत्तश्चापि कर्मतः।। | 12-337-59a 12-337-59b |
सर्ववित्सर्वजित्सिद्धौ भव भावविवर्जितः। संयमेन नवं बन्धं निवर्त्य तपसो बलात्। संप्राप्ता बहवः सिद्धिमप्यबाधां सुखोदयाम्।। | 12-337-60a 12-337-60b 12-337-60c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 337।। |
12-337-1 वेदार्थान्धक्तुभीप्सयेति ड. पाठः।। 12-337-6 नास्ति सत्यात्परं तप इति ध. पाठः।। 12-337-8 यः सज्जति स मुह्यतीति झ. पाठः।। 12-337-13 सत्यस्य पालनं श्रेय इति ट. पाठः।। 12-337-15 इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेभ्य इति ट. ड. पाठः।। 12-337-24 पञ्चानामेषु भूतेषु य एको रमते मुनिरिति ट. पाठः।। 12-337-36 विद्या कर्म च शौर्यं चेति ट. ड. पाठः।। 12-337-39 क्षमैवाऽरित्राणि नौचालनदण्डा यस्याम्। धर्मस्थैर्यवटारकाम् इति झ. पाठः। तत्र धर्मस्यैर्यं वटारका नौकाकर्षणरज्जुर्यस्यां तामित्यर्थः। योगवाताध्वगां कृत्वेति ट. पाठः। कृत्वा नदीं तरेदिति ध. पाठः।। 12-337-44 महद्यत्परमाणुवदिति ट. थ. पाठः।। 12-337-54 रिष्यते हिंस्यते।। 12-337-55 तीर्थविन्मोक्षोपायवित्।। 12-337-60 संयमेन धारणाध्यानसमाध्यात्मकेन। नवं दृष्टिमात्रणोत्पत्रं।।
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