महाभारतम्-12-शांतिपर्व-193
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ध्यानयोगकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-193-1x |
हन्त वक्ष्यामि ते पार्थ ध्यानयोगं चतुर्विधम्। यं ज्ञात्वा शाश्वतीं सिद्धिं गच्छन्तीह महर्षयः।। | 12-193-1a 12-193-1b |
यथा स्वनुष्ठितं ध्यानं तथा कुर्वन्ति योगिनः। महर्षयो ज्ञानतृप्ता निर्वाणगतमानसाः।। | 12-193-2a 12-193-2b |
नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ताः संसारदोषतः। अन्मदोषपरिक्षीणाः स्वभावे पर्युपस्थिताः।। | 12-193-3a 12-193-3b |
निर्द्वन्द्वा नित्यसत्वस्था विमुक्तिं नित्यमश्रिताः। असङ्गीन्यविवादीनि मनः शान्तिकराणि च।। | 12-193-4a 12-193-4b |
तत्र ध्यानेन संश्लिष्टमेकाग्रे धारयेन्मनः। तत्र च ध्यानसंरोधादथ ज्ञानी भवत्युत।। | 12-193-5a 12-193-5b |
चतुर्विधेषु भावेषु योऽर्थसक्तः सदैव हि। तज्ज्ञात्वा वास्तवं तेषामर्थेषु परिवर्तते। पिण्डीकृत्येन्द्रियग्राममासीनः काष्ठवन्मुनिः।। | 12-193-6a 12-193-6b 12-193-6c |
शब्दं न विन्देच्छ्रोत्रेण त्वचा स्पर्शं न वेदयेत्। रूपं न चक्षुषा विद्याज्जिह्वया न रसांस्तथा।। | 12-193-7a 12-193-7b |
घ्रेयाण्यपि च सर्वाणि जह्याद्राणेन योगवित्। पञ्चवर्गप्रमाथीनि नेच्छेच्चैतानि वीर्यवान्।। | 12-193-8a 12-193-8b |
ततो मनसि संसृज्य पञ्चवर्ग विचक्षणः। समादध्यान्मनो भ्रान्तमिन्द्रियैः सह पञ्चमिः।। | 12-193-9a 12-193-9b |
विसंचारि निरालम्बं पञ्चद्वारं चलाचलम्। पूर्वं ध्यानपदे धीरः समादध्यान्मनो नरः।। | 12-193-10a 12-193-10b |
इन्द्रियाणि मनश्चैव यदा पिण्डीकरोत्ययम्। एव ध्यानपथः पूर्वो मया समनुवर्णितः।। | 12-193-11a 12-193-11b |
तस्य तत्पूर्वसंरुद्धमात्सषष्ठं मनोऽन्तरा। स्फुरिष्यति समुद्धान्तं विद्युदम्बुधरे यथा।। | 12-193-12a 12-193-12b |
जलबिन्दुर्यथा लोलः पर्णस्थः सर्वतश्चलः। एवमेवास्य तच्चित्तं भ्रमति ध्यानवर्त्मनि।। | 12-193-13a 12-193-13b |
समाहितं क्षणं किंचिद्ध्यानवर्त्मनि तिष्ठति। पुनर्वायुपथं प्राप्तं मनो भवति वायुवत्।। | 12-193-14a 12-193-14b |
अनिर्वेदो गतक्लेशो गततन्द्रीरमत्सरः। समादध्यात्पुनश्चेतो ध्यानेन ध्यानयोगवित्।। | 12-193-15a 12-193-15b |
विचारश्च विवेकश्च वितर्कश्चोपजायते। मुनेः समादधानस्य प्रथमं ध्यानमादितः।। | 12-193-16a 12-193-16b |
मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कारयेत्। न निर्वेदं मुनिर्गच्छेत्कुर्यादेवात्मनो हितम्।। | 12-193-17a 12-193-17b |
पांसुभस्मकरीषाणां यथा वै राशयश्चिताः। सहसा वारिणा सिक्ता न यान्ति परिभावनम्।। | 12-193-18a 12-193-18b |
किंचित्स्निग्धं यथा च स्याच्छुष्कचूर्णमभावितम्। क्रमशस्तु शनैर्गच्छेत्सर्वं तत्परिभावनम्।। | 12-193-19a 12-193-19b |
एवमेवेन्द्रियग्रामं शनैः संपरिभावयेत्। संहरेत्क्रमशश्चैनं स सम्यक्प्रशमिष्यति।। | 12-193-20a 12-193-20b |
स्वयमेव मनश्चैवं पञ्चवर्गं च भारत। पूर्वं ध्यानपथे स्थाप्य नित्ययोगेन शाम्यति।। | 12-193-21a 12-193-21b |
न तत्पुरुषकारेण न च दैवेन केनचित्। सुखमेष्यति तत्तस्य न भवन्ति विपत्तयः।। | 12-193-22a 12-193-22b |
सुखेन तेन संयुक्तो रस्यते ध्यानकर्मणि। गच्छन्ति योगिनो ह्येवं निर्वाणं तन्निरामयम्।। | 12-193-23a 12-193-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 193।। |
12-193-3 स्वगावे पर्यवस्थिता इति झ. ध. पाठः।। 12-193-10 ध्यानपथे इति ड. पाठः।। 12-193-14 भ्रनति ज्ञानवर्त्मनीति ट. ड. पाठः।।
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