महाभारतम्-12-शांतिपर्व-115
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राज्ञां सहायसंपादनस्यावश्यकतादिप्रतिपादनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-115-1x |
पितामह महाप्राज्ञ संशयो मे महानयम्। संछेत्तव्यस्त्वया राजन्भवान्कुलकरो हि नः।। | 12-115-1a 12-115-1b |
पुरुषाणामयं तात दुर्वृत्तानां दुरात्मनाम्। कथितो वाक्यसंचारस्ततो विज्ञापयामि ते।। | 12-115-2a 12-115-2b |
यद्धितं राज्यतन्त्रस्य कुलस्य च सुखोदयम्। अयत्यां च तदात्वे च क्षेमवृद्धिकरं च तत्।। | 12-115-3a 12-115-3b |
पुत्रपौत्राभिरामं च राष्ट्रवृद्धिकरं च यत्। अन्नपाने शरीरे च हितं यत्तद्ब्रवीहि मे।। | 12-115-4a 12-115-4b |
अभिषिक्तो हि यो राजा राज्यस्थो मित्रसंवृत। समुहृत्समुपेतो वा स कथं रञ्जयेत्प्रजाः।। | 12-115-5a 12-115-5b |
यो ह्यसत्प्रग्रहरतिः स्नेहरागबलात्कृतः। इन्द्रियाणामनीशत्वादसज्जनबुभूषकः।। | 12-115-6a 12-115-6b |
तस्य भृत्या विमुखतां यान्ति सर्वे कुलोद्गताः। न च भृत्यबलैरर्थैः स राजा संप्रयुज्यते।। | 12-115-7a 12-115-7b |
एतन्मे चिन्तयानस्य राजधर्मान्दिवानिशम्। बृहस्पतिसमो बुद्ध्या भवाञ्शंसितुमर्हति।। | 12-115-8a 12-115-8b |
शासता पुरुषव्याघ्र त्वं नः कुलहिते रतः। क्षत्ता चैको महाप्राज्ञो यो नः शंसति सर्वदा।। | 12-115-9a 12-115-9b |
त्वत्तः कुलहितं वाक्यं श्रुत्वा राज्यहितोदयम्। अमृतस्याव्ययस्येव तृप्तः स्वप्स्याम्यहं सुखम्।। | 12-115-10a 12-115-10b |
कीदृशाः सन्निकर्षस्था भृत्याः सर्वगुणान्विताः। कीदृशैः किं कुलीनैर्वा सह यात्रा विधीयते।। | 12-115-11a 12-115-11b |
न ह्येको भृत्यरहितो राजा भवति रक्षिता। राज्यं चेदं जनः सर्वस्तत्कुलीनः प्रशासति।। | 12-115-12a 12-115-12b |
भीष्म उवाच। | 12-115-13x |
न च प्रशास्तुं राज्यं हि शक्यमेकेन भारत।। | 12-115-13a |
असहायवता तात नैवार्थाः केचिदप्युत। लब्धुं लब्धा ह्यपि सदा रक्षितुं भरतर्षभ।। | 12-115-14a 12-115-14b |
यस्य भृत्यजनः सर्वो ज्ञानविज्ञानकोविदः। हितैषी कुलजः स्निग्धः स राज्यफलमश्नुते।। | 12-115-15a 12-115-15b |
मन्त्रिणो यस्य कुलजा असंहार्याः सहोषिताः। नृपतेर्मतिमाप्सन्ते सत्पथज्ञानकोविदाः।। | 12-115-16a 12-115-16b |
अनागतविधातारः कालज्ञानविशारदाः। अतिक्रान्तमशोचन्तः स राज्यफलमश्नुते।। | 12-115-17a 12-115-17b |
समदुःखसुखा यस्य सहायाः प्रियकारिणः। अर्थचिन्तापराः सभ्याः स राज्यफलमश्नुते।। | 12-115-18a 12-115-18b |
यस्य नार्तो जनपदः सन्निकर्षगतः सदा। अक्षुद्रः सत्पथालम्बी स राजा राज्यभाग्भवेत्।। | 12-115-19a 12-115-19b |
कोशोऽक्षपटलं यस्य कोशवृद्धिकरैर्नरैः। आप्तैस्तुष्टैश्च पृष्टैश्च धार्यते स नृपोत्तमः।। | 12-115-20a 12-115-20b |
कोष्ठागारमसंहार्यैराप्तैः संचयतत्परैः। पात्रभूतैरलुब्धैश्च पाल्यमानं गुणी भवेत्।। | 12-115-21a 12-115-21b |
व्यवहारश्च नगरे यस्य धर्मफलोदयः। दृश्यते शङ्खलिखितः स धर्मफलभाङ् नृपः।। | 12-115-22a 12-115-22b |
संगृहीतमनुष्यश्च यो राजा राजधर्मवित्। षङ्भागं परिगृह्णाति स धर्मफलमश्नुते।। | 12-115-23a 12-115-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 115।। |
12-115-2 अयं निन्दारूपः।। 12-115-3 हिनं अनिन्द्यम्। आयत्यां उत्तरकाले। तदात्वे वर्तमानाकले।। 12-115-5 मित्रसुहृदौ प्रत्युपकारमपेक्ष्यानपेक्ष्य चोपकर्तारौ तद्वान्। समुपेतः शौर्यादिनेति शेषः।। 12-115-7 भृत्यबलप्राप्यैरर्थैर्धनादिभिः।। 12-115-14 लब्धुं लब्धाश्च रक्षितुं शक्या इतिं शेषः।। 12-115-16 असंहार्याः उत्कोचादिना अभेद्याः।। 12-115-21 कोष्ठागारं धान्यादिसामग्रीगृहम्। गुणीभवेत् बहुगुणिभावं गच्छेत्।। 12-115-22 व्यवहारः अर्थिप्रत्यर्थिनोर्विवादे निर्णयः। शङ्खलिखित इति। यथा फलमात्रस्तेने शङ्खेन लिखितस्य हस्तच्छेदो राजानं प्रतिषेधयित्वा कारितस्तद्वदित्यर्थः।।
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