महाभारतम्-12-शांतिपर्व-213
← शांतिपर्व-212 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-213 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-214 → |
भीष्मेम युधिष्ठिरंप्रति शिष्यंप्रत्युक्तजगत्सृष्ट्यादिप्रतिपादकगुरुवाक्यानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-213-1x |
चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। अव्यक्तप्रभवान्याहुरव्यक्तनिधनानि च। अव्यक्तलक्षणं विद्यादव्यक्तात्मात्मकं मनः।। | 12-213-1a 12-213-1b 12-213-1c |
यथाऽश्वत्थकणीकायामन्तर्भूतो महाद्रुमः। निष्पन्नो दृश्यते व्यक्तमव्यक्तात्संभवस्तथा।। | 12-213-2a 12-213-2b |
`आत्मानमनुसंयाति बुद्धिरव्यक्तजा तथा। तामन्वेति मनो यद्वल्लोहवर्मणि सन्निधौ।।' | 12-213-3a 12-213-3b |
अभिद्रवत्ययस्कान्तमयोनिश्चेतनं यथा। स्वभावहेतुजा भावा यद्वदन्यदपीदृशम्।। | 12-213-4a 12-213-4b |
तद्वदव्यक्तजा भावाः कर्तुः कारणलक्षणाः। अचेतनाश्चेतयितुः कारणादभिसंगताः।। | 12-213-5a 12-213-5b |
न भूर्न खं द्यौर्भूतानि नर्षयो न सुरासुराः। नान्यदासीदृते जीवमासेदुर्न तु संहतिम्।। | 12-213-6a 12-213-6b |
सर्वं नित्यं सर्वगतं मनोहेतुत्वलक्षणम्। अज्ञानकर्म निर्दिष्टमेतत्कारणलक्षणम्।। | 12-213-7a 12-213-7b |
तत्कारणेन संयुक्तं कार्यसंग्रहकारकम्। येनैतद्वर्तते चक्रमनादिनिधनं महत्।। | 12-213-8a 12-213-8b |
`येन स्वभावसद्भावं हेतुभूता सकारणा। एवं प्राकृतविस्तारो ह्याश्रित्य पुरुषं परम्।।' | 12-213-9a 12-213-9b |
अव्यक्तनाभं व्यक्तारं विकारपरिमण्डलम्। क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं चक्रं स्निग्धाक्षं वर्तते ध्रुवम्।। | 12-213-10a 12-213-10b |
स्निग्धत्वात्तिलवत्सर्वं चक्रेऽस्मिन्पीड्यते जगत्। तिलपीडैरिवाक्रम्य भोगैरज्ञानसंभवैः।। | 12-213-11a 12-213-11b |
`प्राणेनायं हि शान्ते तु विरोधात्प्रतिपालनम्। देहस्येषून्य आस्ते यः शुद्धोऽचिन्त्यः सनातनः।। | 12-213-12a 12-213-12b |
भ्रामयन्नेषतो याति कालचक्रसमन्वितः। भूतानि मोहयन्नित्यं चक्रस्य च रयं गतः।। | 12-213-13a 12-213-13b |
स्नेहद्रव्यसमायोगे क्षेत्रपाचं न वस्तुषु। तिलवत्पीडिते चक्रे ह्याधियन्त्रनिपीडिते। बहिश्चाधिष्ठिते यद्वज्ज्ञानिनां कर्मसंभवम्'।। | 12-213-14a 12-213-14b 12-213-14c |
कर्म तत्कुरुते तर्षादहंकारपरिग्रहम्। कार्यकारणसंयोगे स हेतुरुपपादितः।। | 12-213-15a 12-213-15b |
`यथाऽऽकर्ण्य च तच्छिष्यस्तत्वज्ञानमनुत्तमम्।' नात्येति कारणं कार्यं न कार्यं कारणं तथा। कार्याण्यमूनि करणे कालो भवति हेतुमान्।। | 12-213-16a 12-213-16b 12-213-16c |
हेतुयुक्ताः प्रकृतयो विकाराश्च परस्परम्। अन्योन्यमभिवर्तन्ते पुरुषाधिष्ठिताः सदा।। | 12-213-17a 12-213-17b |
सत्वरजस्तामसैर्भावैश्च्युतो हेतुबलान्वितः। क्षेत्रज्ञमेवानयाति पांसुर्वातेरितो यथा।। | 12-213-18a 12-213-18b |
न च तैः स्पृश्यते भावैर्न ते तेन महात्मना। सरजस्कोऽरजस्कश्च स वै वायुर्भवेद्यथा।। | 12-213-19a 12-213-19b |
तथैतदन्तरं विद्यात्सत्वक्षेत्रज्ञयोर्बुधः। अभ्यासात्स तथा युक्तो न गच्छेत्प्रकृतिं पुनः।। | 12-213-20a 12-213-20b |
संदेहमेतमुत्पन्नमच्छिनद्भगवानृषिः। तथा वार्तां समीक्षेत कृतलक्षणसंविदम्।। | 12-213-21a 12-213-21b |
बीजान्यग्न्युपदग्धानि नरो हन्ति यथा पुनः। ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा संपद्यते पुनः।। | 12-213-22a 12-213-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 213।। |
12-213-9 विद्यादव्यक्तात्मकमेव च इति थ. पाठः।। 12-213-16 कार्यव्यक्तेन करणे इति झ. पाठः।। 12-213-18 राजसैस्तामसैर्भावैः इति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-212 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-214 |