महाभारतम्-12-शांतिपर्व-221
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति अनकं प्रत्युक्तपञ्चशिखवाक्यानुवादः।। 1।।
`*भीष्म उवाच। | 12-221-1x |
जनको नरदेवस्तु ज्ञापितः परमर्षिणा। पुनरेवानुपप्रच्छ सांपराये भवाभवौ।। | 12-221-1a 12-221-1b |
भगवन्यदिदं प्रेत्य संज्ञा भवति कस्यचित्। एवं सति किमज्ञानं ज्ञानं वा किं करिष्यति।। | 12-221-2a 12-221-2b |
विवादादेव सिद्धोऽसौ कारणस्येव वेदना। चेतनो विद्यते ह्यत्र हैतुकं च मनोगतम्।। | 12-221-3a 12-221-3b |
आगमादेव सिद्धोऽसौ स्वताः सिद्धा इति श्रुतिः। वर्तते पृथगन्योन्यं न ह्यपःश्रित्य कर्मसु।। | 12-221-4a 12-221-4b |
चेतनो ह्यंशवस्तत्र स्वमूर्तं धारयन्त्यतः। स्वभावं पौरुषं कर्म ह्यात्मानं तमुपाश्रितम्। तमाश्रित्य प्रवर्तन्ते देहिनो देहबन्धनाः।। | 12-221-5a 12-221-5b 12-221-5c |
गुणज्ञानमभिज्ञानं तस्य लिङ्गानुशब्दयत्। पृथिव्यादिषु भूतेषु तत्तदाहुर्निदर्शनम्।। | 12-221-6a 12-221-6b |
आत्माऽसौ वर्तते भिन्नस्तत्रतत्र समन्वितः। परमात्मा तथीवैको देवेऽस्मिन्निति वै श्रुतिः।। | 12-221-7a 12-221-7b |
आकाशं वायुरूष्भा च स्नेहो यच्चापि पार्थिवम्। यथा त्रिधा प्रवर्तन्ते तथाऽसौ पुरुषः स्मृतः।। | 12-221-8a 12-221-8b |
पपस्यन्तर्हितं यद्वत्तद्वद्व्याप्तं महात्मकम्। पूर्वं नैश्चर्ययोगेन तस्मादेतन्न शेपवान्।। | 12-221-9a 12-221-9b |
शब्दाः कालः क्रिया देहो ममैकस्वैव कल्पना। स्वभावं तन्मयं त्वेदं मायारूपं तु भेदवत्।। | 12-221-10a 12-221-10b |
नानाख्यं परं शुद्धं निर्विकल्पं परात्मकम्। लिङ्गादि देवमध्यास्ते ज्ञानं देवस्य तत्तथा।। | 12-221-11a 12-221-11b |
चिन्मयोऽयं हि नादाख्यः शब्दश्चासौ मनो महान्। गतिमानुत संधत्ते वर्णमत्तत्पदान्वितम्।। | 12-221-12a 12-221-12b |
कायो नास्ति च तेषां वै अवकाशस्तथा परम्। एतेनोढा इति चाख्याताः सर्वे ते धर्मदूषकाः।। | 12-221-13a 12-221-13b |
अवन्धनमविज्ञानाज्ज्ञानं तद्भुवमव्ययम्। नानाभेदविकल्पने येषामात्मा स्मृतः सदा।। | 12-221-14a 12-221-14b |
प्रकृतेरपरस्तेषां बहवोऽप्यात्मवादिनः। विरोधो ह्यात्मसन्मायां न तेषां सिद्ध एव हि। अन्यदा च गृहीतै-----वेदबाह्यास्ततः स्मृताः।। | 12-221-15a 12-221-15b 12-221-15c |
एकानेकात्मकं तेषां प्रतिषेधो हि भेदनुत्। तस्माद्वेदस्य हृदयमद्वैध्यमिति विद्धि तत्।। | 12-221-16a 12-221-16b |
वेदादृष्टेरयं लोकः सर्वार्थेषु प्रवर्तते। तस्माच्च स्मृतयो जाताः सेतिहासाः पृथग्विधाः।। | 12-221-17a 12-221-17b |
न यन्न साध्यं तद्ब्रह्म नादिमध्यं न चान्तवत्। इन्द्रियाणि च भूरीणि परा च प्रकृतिर्मनः।। | 12-221-18a 12-221-18b |
आत्मा च परमः शुद्धः प्रोक्तोऽसौ परमः पुमान्।। | 12-221-19a |
उत्पत्तिलक्षणं चेदं विपरीतमथोभयोः। यो वेत्ति प्रकृतिं नित्यं तथा चैवात्मनस्तु ताम्। प्रदहत्येष कर्माख्यं दावोद्भूत इवानलः।। | 12-221-20a 12-221-20b 12-221-20c |
चिन्मात्रपरमः शुद्धः सर्वाकृतिषु वर्तते।। | 12-221-21a |
आकाशकल्पं विमलं नानाशक्तिसमन्वितम्। तापनं सर्वभूतानां ज्योतिषां मध्यमस्थितिम्। दुःखमस्ति न निर्दुःखं तद्विद्वान्न च लिप्यति।। | 12-221-22a 12-221-22b 12-221-22c |
असावश्नाति यद्वत्तद्वमरोऽश्नाति यन्मधु। एवमेव महानात्मा नात्मानमवबुध्यते।। | 12-221-23a 12-221-23b |
एवंभूतस्त्वमित्यत्र स्वाधितो बुद्ध्यते परम। बुधस्य बोधनं तत्र क्रियते सद्भिरित्युत। न बुधस्येति वै कश्चिन्न तथावच्छृणुष्व मे।। | 12-221-24a 12-221-24b 12-221-24c |
शोकमस्य न गत्वा ते शास्त्राणां शास्त्रदस्यवः। लोकं निध्नन्ति संभिन्ना ज्ञातिनोत्र वदन्त्युत।। | 12-221-25a 12-221-25b |
एवं तस्य विभोः कृत्यं धातुरस्य महात्मनः। क्षमन्ति ते महात्मानः सर्वद्वन्द्वविवर्जिताः।। | 12-221-26a 12-221-26b |
अतोऽन्यथा महात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा।। | 12-221-27a 12-221-27b |
तस्य संयोगयोगेन शुचिरप्यशुचिर्भवेत्। अशुचिश्च शुचिश्चापि ज्ञानाद्देहादयो यथा।। | 12-221-28a 12-221-28b |
दृश्यं न चैव दृष्टं स्याद्दृष्टं दृश्यं तु नैव च।। | 12-221-29a |
अतीतत्रितयाः सिद्धा ज्ञानरूपेण सर्वदा। एवं न प्रतिपद्यन्ते रागमोहमदान्विताः।। | 12-221-30a 12-221-30b |
वेदबाह्या दुरात्मानः संसारे दुःखभागिनः। आगमानुगतज्ञाना बुद्धियुक्ता भवन्ति ते।। | 12-221-31a 12-221-31b |
बुद्ध्या भवति बुद्ध्या त्वं यद्बुद्धं चात्मरूपवत्। तमस्यन्धे न संदेहात्परं यान्ति न संशयः।। | 12-221-32a 12-221-32b |
नित्यनैमित्तिकान्कृत्वा पापहानिमवाप्य च। शुद्धसत्वा महात्मानो ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।। | 12-221-33a 12-221-33b |
असक्ताः परिवर्तन्ते संसरन्त्यथ वायुवत्। न युज्यन्तेऽथवा क्लेशैरहंभावोद्भवैः सह।। | 12-221-34a 12-221-34b |
इतस्ततः समाहृत्य ज्ञानं निर्वर्णयन्त्युत। ज्ञानान्वितस्तमो हन्यादर्कवत्स महामतिः।। | 12-221-35a 12-221-35b |
एवमात्मानमन्वीक्ष्य नानादुःखसमन्वितम्। देहं पङ्कमले मग्नं निर्मलं परमार्थतः।। | 12-221-36a 12-221-36b |
तमेवं सर्वदुःखात्तु मोचयेत्परमात्मवान्। ब्रह्मचर्यव्रतोपेतः सर्वसङ्गबहिष्कृतः। लघ्वाहारो विशुद्धात्मा परं निर्वाणमृच्छति।। | 12-221-37a 12-221-37b 12-221-37c |
इन्द्रियाणि मनो वायुः शोणितं मांसमस्थि च। आनुपूर्व्याद्विनश्यन्ति स्वं धातुमुपयान्ति च।। | 12-221-38a 12-221-38b |
कारणानुगतं कार्यं यदि तच्च विनश्यति। अलिङ्गस्य कथं लिङ्गं युज्यते तन्मृषा दृढम्।। | 12-221-39a 12-221-39b |
न त्वेव हेतवः सन्ति ये केचिन्मूर्तिसंस्थिताः। अमर्त्यस्य च मर्त्येन सामान्यं नोपपद्यते।। | 12-221-40a 12-221-40b |
लोकदृष्टो यथा जातेः स्वेदजः पुरुषः स्त्रियाम्। कृतानुस्मरणात्सिद्धो वेदगम्यः परः पुमान्।। | 12-221-41a 12-221-41b |
प्रत्यक्षानुगतो वेदो नामहेतुभिरिष्यते।। | 12-221-42a |
यथा शाखा हि वै शाखा तरोः संबध्यते तदा। श्रुत्या तथापरोप्यात्मा दृश्यते सोऽप्यलिङ्गवान्। अलिङ्गसाध्यं तद्ब्रह्म बहवः सन्ति हेतवः।। | 12-221-43a 12-221-43b 12-221-43c |
लोकयात्राविधानं च दानधर्मफलागमः। तदर्थं वेदशब्दाश्च व्यवहाराश्च लौकिकाः।। | 12-221-44a 12-221-44b |
इति सम्यङ्भनस्येते बहवः सन्ति हेतवः। एतदस्तीदमस्तीति न किंचित्प्रतिदृश्यते।। | 12-221-45a 12-221-45b |
तेषां विमृशतामेवं तत्तत्समभिधावताम्। क्वचिन्निविशते बुद्धिस्तत्र जीर्यति वृक्षवत्।। | 12-221-46a 12-221-46b |
एवमर्थैरनर्थैश्च दुःखिताः सर्वजन्तवः। आगमैरपकृष्यन्ति हस्तिनो हस्तिपैर्यथा।। | 12-221-47a 12-221-47b |
न जातु कामः कामामामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिर्वधते।। | 12-221-48a 12-221-48b |
अर्थांस्तथाऽत्यन्तदुःखाबहांश्च लिप्सन्त एके बहवो विशुष्काः। महत्तरं दुःखमभिप्रपन्ना हित्वा सुखं मृत्युवशं प्रयान्ति।। | 12-221-49a 12-221-49b 12-221-49c 12-221-49d |
विनाशिनो ह्यध्रुवजीवितस्य किं बन्धुभिर्मन्त्रपरिग्रहैश्च। विहाय यो गच्छति सर्वमेव क्षणेन गत्वा न निवर्तते च।। | 12-221-50a 12-221-50b 12-221-50c 12-221-50d |
स्वं भूमितोयानलवायवो हि सदा शरीरं प्रतिपालयन्ति। इतीदमालक्ष्य कुतो रतिर्भवे द्विनाशिनो ह्यस्य न कर्म विद्यते।। | 12-221-51a 12-221-51b 12-221-51c 12-221-51d |
इदमनुपधिवाक्यमच्छलं परमनिरामयमात्मसाक्षिकम्। नरपतिरनुवीक्ष्य विस्मितः पुनरनुयोक्तुमिदं प्रचक्रमे।।' | 12-221-52a 12-221-52b 12-221-52c 12-221-52d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 221।। |
- अयमध्यावो व. पुस्तकएव दृश्यते।
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