महाभारतम्-12-शांतिपर्व-088
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति प्रजाश्यः करग्रहणादिप्रकारकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-88-1x |
यदा राजा समर्थोऽपि कोशार्थी स्यान्महामते। कथं प्रवर्तेत करस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-88-1a 12-88-1b |
भीष्म उवाच। | 12-88-2x |
यथादेशं यथाकालं यथाबुद्धि यथाबलम्। अनुशिष्यात्प्रजा राजा धर्मार्थी तद्धिते रतः।। | 12-88-2a 12-88-2b |
यथा तासां च मन्येत श्रेय आत्मन एव च। तथा धर्माणि सर्वाणि राजा राष्ट्रेषु वर्तयेत्।। | 12-88-3a 12-88-3b |
मधुदोहं दुहेद्राष्ट्रं भ्रमरान्न प्रपातयेत्। वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकुट्टयेत्।। | 12-88-4a 12-88-4b |
जलौकावत्पिबेद्राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः। व्याघ्रीव च हरेत्पुत्रान्संदशेन्न च पीडयेत्।। | 12-88-5a 12-88-5b |
यथा शल्यकवानाखुः पदं धूनयते सदा। अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत्।। | 12-88-6a 12-88-6b |
अल्पेनाल्पेन देयेन वर्धमानं प्रदापयेत्। ततो भूयस्ततो भूयः क्रमवृद्धिं समाचरेत्।। | 12-88-7a 12-88-7b |
दमयन्निव दम्यानि शश्वद्भारं विवर्धयेत्। मृदुपूर्वं प्रयत्नेन पाशानभ्यवहारयेत्।। | 12-88-8a 12-88-8b |
सकृत्पाशावकीर्णास्ते न भविष्यन्ति दुर्दमाः। उचितेनैव भोक्तव्यास्ते भविष्यन्त्ययत्नतः।। | 12-88-9a 12-88-9b |
तस्मात्सर्वसमारम्भो दुर्लभः पुरुषं प्रति। यथा मुख्यान्सान्त्वयित्वा भोक्तव्या इतरे जनाः।। | 12-88-10a 12-88-10b |
ततस्तान्भेदयित्वा तु परस्परविवक्षितान्। भुञ्जीत सान्त्वयंश्चैव यथासुखमयत्नतः।। | 12-88-11a 12-88-11b |
न चास्थाने न चाकाले करांस्तेभ्यो निपातयेत्। आनुपूर्व्येण सान्त्वेन यथाकालं यथाविधि।। | 12-88-12a 12-88-12b |
उपायान्प्रब्रवीम्येतान्न मे माया विवक्षिता। अनुपायेन दमयन्प्रकोपयति वाजिनः।। | 12-88-13a 12-88-13b |
पानागारनिवोशाश्च वेश्याः प्रापणिकास्तथा। कुशीलवाः सकितवा ये चान्ये केचिदीदृशाः।। | 12-88-14a 12-88-14b |
नियम्याः सर्व एवैते ये राष्ट्रस्योपघातकाः। एते राष्ट्रेऽभितिष्ठन्तो बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः।। | 12-88-15a 12-88-15b |
न केनचिद्याचितव्यः कश्चित्किंचिदनापदि। इति व्यवस्था भूतानां पुरस्तान्मनुना कृता।। | 12-88-16a 12-88-16b |
सर्वे तथाऽनुजीवेयुर्न कुर्युः कर्म चेदिह। सर्व एव इमे लोका न भवेयुरसंशयम्।। | 12-88-17a 12-88-17b |
प्रभुर्नियमने राजा य एतान्न नियच्छति। भुङ्क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागमिति श्रुतिः।। | 12-88-18a 12-88-18b |
भोक्ता तस्य तु पापस्य सुकृतस्य यथातथा। नियन्तव्याः सदा राज्ञा पापा ये स्युर्नराधिप।। | 12-88-19a 12-88-19b |
कृतपापस्त्वसौ राजा य एतान्न नियच्छति। तथा कृतस्य धर्मस्य चतुर्भागमुपाश्नुते। | 12-88-20a 12-88-20b |
स्थानान्येतानि संयम्य प्रसङ्गो भूतिनाशनः। कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्यं विवर्जयेत्।। | 12-88-21a 12-88-21b |
मद्यमांसपरस्वानि तथा दारधनानि च। आहरेद्रागवशगस्तथा शास्त्रं प्रदर्शयेत्।। | 12-88-22a 12-88-22b |
आपद्येव तु याचन्ते येषां नास्ति परिग्रहः। दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रोशाद्भयान्न तु।। | 12-88-23a 12-88-23b |
मा ते राष्ट्रे याचनका भवेयुर्मा च दस्यवः। उपादातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः।। | 12-88-24a 12-88-24b |
ये भूतान्यनुगृह्णन्ति वर्धयन्ति च ये प्रजाः। तेते राष्ट्रेषु वर्तन्तां मा भूतानां प्रबाधकाः।। | 12-88-25a 12-88-25b |
दण्ड्यास्ते च महाराज धनादानप्रयोजकाः। प्रयोगं कारयेथास्ते यथा दद्युः करांस्तथा।। | 12-88-26a 12-88-26b |
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यच्चान्यत्किंचिदीदृशम्। पुरुषैः कारयेत्कर्म बहुभिः कर्मभेदतः।। | 12-88-27a 12-88-27b |
नरश्चेत्कृषिगोरक्ष्यं वाणिज्यं चाप्यनुष्ठितः। संशयं लभते किंचित्तेन राजा विगर्ह्यते।। | 12-88-28a 12-88-28b |
धनिनः पूजयेन्नित्यं पानाच्छादनभोजनैः। वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं प्रजाः सह मयेति वै।। | 12-88-29a 12-88-29b |
अङ्गमेतन्महद्राज्ये धनिनो नाम भारत। ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः।। | 12-88-30a 12-88-30b |
प्राज्ञः शूरो धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च। तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति।। | 12-88-31a 12-88-31b |
तस्मात्सर्वेषु भूतेषु प्रीतिमान्भव पार्थिव। सत्यमार्जवमक्रोधमानृशंस्यं च पालय।। | 12-88-32a 12-88-32b |
एवं दण्डं च कोशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसि। सत्यार्जवपरो राजन्मित्रकोशबलान्वितः।। | 12-88-33a 12-88-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टाशीतितमोऽध्यायः।। 88।। |
12-88-4 भ्रमरा इव पादपमिति झ. पाठः।। 12-88-6 शल्यकवांस्तीक्ष्णतुण्ड आखुविशेषः। सहि निद्रितस्य मनुष्यस्य पादतलस्थं मांसमतीक्ष्णेनैवोपायेन भक्षयति। यथा विलेखकः कर्णमाखुः पादत्वचं यथेति ड. थ. पाठः।। 12-88-8 दम्यानि वत्सतरकुलानि यथा क्रमेण दमयेतद्वत्प्रजा अपीत्याह दमयन्निवेति। अभ्यव हारयेद्वाहयेत्।। 12-88-9 सकृत्सद्यः पाशावकीर्णाः सन्तो नभविष्यन्ति मरिष्यन्ति। यतो दुर्दमा अथ उचितेन क्रमेण ते भोक्तव्या दम्याः प्रजाश्च। असत्पाशावकीर्णास्ते भविष्यन्तीह दुर्मदाः। इति ड.थ. पाठः।। 12-88-10 पुरुषं प्रतीत्यस्य प्रतिपुरुषमित्यर्थः।। 12-88-11 ततो मुख्यद्वारा तानितरान् विवक्षितान्वोदुमिष्टान्। ततस्तान्भोजयित्वात परस्परविवर्जितान्। इति थ.द. पाठः।। 12-88-14 मद्यशालाः संदेशहराः कुट्टन्यः। कुत्सितेन शीलेन वान्ति गच्छन्ति धर्मं हिंसन्ति वा कुशील वा विटाः। कितमा द्यूतकाराश्च नि ग्राह्या इत्याह पानेति।। 12-88-15 भद्रिकाः कल्याणः।। 12-88-16 याचितव्यः दत्तमृणं करं वेति शेषः।। 12-88-17 अनुजावेयुरनुसरेयुः। अन्यथा दोषमाह नेति।। 12-88-20 तथा तथाभूतः नियच्छन्नित्यर्थः।। 12-88-21 स्थानानि मद्यादीनाम्।। 12-88-22 शास्त्रमाज्ञां प्रदर्शयेत्प्रवर्तयेत्।। 12-88-28 संशयं चोरेभ्यो राजकीयेभ्यो वा भयात्।।
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