महाभारतम्-12-शांतिपर्व-161
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति लोभादिनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-161-1x |
यतः प्रभवति क्रोधः कामो वा भरतर्षभ। शोकमोहौ विधित्सा च परासुत्वं तथा मदः।। | 12-161-1a 12-161-1b |
लोभो मात्सर्यमीर्ष्या च कुत्साऽसूया कृपा भयम्। एतत्सर्वं महाप्राज्ञ याथातथ्येन मे वद।। | 12-161-2a 12-161-2b |
भीष्म उवाच। | 12-161-3x |
त्रयोदशैतेऽतिबलाः शत्रवः प्राणिनां स्मृताः। उपासते महाराज समन्तात्पुरुषानिह।। | 12-161-3a 12-161-3b |
एते प्रमत्तं पुरुषमप्रमत्तास्तुदन्ति च। वृका इव विलुम्पन्ति दृष्ट्वेव पुरुषेतरान्।। | 12-161-4a 12-161-4b |
एभ्यः प्रवर्तते दुःखमेभ्यः पापं प्रवर्तते। इति मर्त्यो विजानीयात्सततं पुरुषर्षभ।। | 12-161-5a 12-161-5b |
एतेषामुदयं स्थानं क्षयं च पृथिवीपते। हन्त ते कथयिष्यामि क्रोधस्योत्पत्तिमादितः। यथातत्त्वं क्षितिपते तन्मे निगदतः शृणु।। | 12-161-6a 12-161-6b 12-161-6c |
लोभात्क्रोधः प्रभवति परदोषैरुदीर्यते। क्षमया तिष्ठते राजन्क्षमया विनिवर्तते।। | 12-161-7a 12-161-7b |
संकल्पाज्जायते कामः सेव्यमानो विवर्धते। यदा प्राज्ञो विरमते तदा सद्यः प्रणश्यति।। | 12-161-8a 12-161-8b |
[परामूया क्रोधलोभावन्तरा प्रतिमुच्यते। दयया सर्वभूतानां निर्वेदाद्विनिवर्तते।] अवद्यदर्शनादेति तत्त्वज्ञानाच्च नश्यति।। | 12-161-9a 12-161-9b 12-161-9c |
अज्ञानप्रभवो मोहः पापाभ्यासात्प्रवर्तते। यदा प्राज्ञेषु रमते तदा सद्यः प्रणश्यति।। | 12-161-10a 12-161-10b |
विरुद्धानीह शास्त्राणि ये पश्यन्ति कुरूद्वह। विधित्सा जायते तेषां तत्त्वज्ञानान्निवर्तते।। | 12-161-11a 12-161-11b |
प्रीतेः शोकः प्रभवति वियोगात्तस्य देहिनः। यदा निरर्थकं वेत्ति तदा सद्यः प्रणश्यति।। | 12-161-12a 12-161-12b |
परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते। दयया सर्वभूतानां निर्वेदात्सा निवर्तते।। | 12-161-13a 12-161-13b |
सत्यत्यागात्तु मात्सर्यमहितानां च सेवया। एतत्तु क्षीयते तात साधूनामुपसेवनात्।। | 12-161-14a 12-161-14b |
कुलाञ्ज्ञानात्तथैश्वर्यान्मदो भवति देहिनाम्। एभिरेव तु विज्ञातैर्मदः सद्यः प्रणश्यति।। | 12-161-15a 12-161-15b |
ईर्ष्या कामात्प्रभवति संहर्षाच्चैव जायते। इतरेषां तु सत्वानां प्रज्ञया सा प्रणश्यति।। | 12-161-16a 12-161-16b |
विभ्रमाल्लोकबाह्यानां द्वेष्यैर्वाक्यैरसंमतैः। कुत्सा संजायते राजँल्लोकान्प्रेक्ष्याभिशाम्यति।। | 12-161-17a 12-161-17b |
प्रतिकर्तुं न शक्ता ये बलस्थायापकारिणे। असूया जायते तीव्रा कारुण्याद्विनिवर्तते।। | 12-161-18a 12-161-18b |
कृपणान्सततं दृष्ट्वा ततः संजायते कृपा। धर्मनिष्ठां यदा वेत्ति तदा शाम्यति सा कृपा।। | 12-161-19a 12-161-19b |
अज्ञानप्रभवो लोभो भूतानां दृश्यते सदा। अस्थिरत्वं च भोगानां दृष्ट्वा ज्ञात्वा निवर्तते।। | 12-161-20a 12-161-20b |
एतान्येव जितान्याहुः प्रशान्तेन त्रयोदश। एते हि धार्तराष्ट्राणां सर्वे दोषास्त्रयोदश। त्वया सत्यार्थिना नित्यं विजिता जेष्यता चते।। | 12-161-21a 12-161-21b 12-161-21c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 161।। |
12-161-4 दृष्ट्वेव पुरुषं बलादिति झ. पाठः।। 12-161-7 लोभात् केनचिन्निमित्तेनोपहतात् क्रोधो भवति। स च परदोषैर्दृष्टैरुदीयते उद्दीप्तो भवति। स क्षमया तिष्ठते निरुध्यते विनिवर्तते चेति। एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम्।।
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