महाभारतम्-12-शांतिपर्व-245
← शांतिपर्व-244 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-245 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-246 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वर्णाश्रमोचितधर्मानुष्ठानपूर्वकब्रह्मज्ञानस्य तत्प्राप्तिसाधनत्वादिप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-245-1x |
इत्युक्तोऽभिप्रशस्यैतत्परमर्षेस्तु शासनम्। मोक्षधर्मार्थसंयुक्तमिदं प्रष्टुं प्रचक्रमे।। | 12-245-1a 12-245-1b |
शुक उवाच। | 12-245-2x |
प्रजावाञ्श्रोत्रियो यज्वा कृतप्रज्ञोऽनसूयकः। अनागतमनैतिह्यं कथं ब्रह्माधिगच्छति।। | 12-245-2a 12-245-2b |
तपसा ब्रह्मचर्येण सर्वत्यागेन मेधया। साङ्ख्ये वा यदि वा योग एतत्पृष्टो वदस्व मे।। | 12-245-3a 12-245-3b |
मनसश्चेन्द्रियाणां च यथैकाग्र्यमवाप्यते। येनोपायेन पुरुषैस्तत्त्वं व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-245-4a 12-245-4b |
व्यास उवाच। | 12-245-5x |
नान्यत्र विद्यातपसोर्नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्। नान्यत्र लोभसंत्यागात्सिद्धिं विन्दति कश्चन।। | 12-245-5a 12-245-5b |
महाभूतानि सर्वाणि पूर्वसृष्टिः स्वयंभुवः। भूयिष्ठं प्राणभृत्काये निविष्टानि शरीरिषु।। | 12-245-6a 12-245-6b |
भूमेर्देहो जलास्त्रोतो ज्योतिषश्चक्षुषी स्मृते। प्राणापानाश्रयो वायुः स्वेष्वाकाशं शरीरिणाम्।। | 12-245-7a 12-245-7b |
क्रान्ते विष्णुर्बले शक्रः कोष्ठेऽग्निर्भोक्तुमिच्छति। कर्णयोः प्रदिशः श्रोत्रे जिह्वायां वाक् सरस्वती।। | 12-245-8a 12-245-8b |
कर्णौ त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। दश तानीन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये।। | 12-245-9a 12-245-9b |
शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः। इन्द्रियाणि पृथक्स्वार्थान्मनसा दर्शयन्त्युत।। | 12-245-10a 12-245-10b |
इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते वश्यान्यन्तेव वाजिनः। मनश्चापि सदा भुक्ते भूतात्मा हृदयाश्रितः।। | 12-245-11a 12-245-11b |
इन्द्रियाणां तथैवैषां सर्वेषामीश्वरं मनः। नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मानसस्तथा।। | 12-245-12a 12-245-12b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः। प्राणापानौ च जीवश्च नित्यं देहेषु देहिनाम्।। | 12-245-13a 12-245-13b |
आश्रयो नास्ति सत्वस्य गुणः सत्त्वस्य चेतना। सत्वं हि तेजः सृजति न गुणान्वै कथंचन।। | 12-245-14a 12-245-14b |
एवं सप्तदशं देहे वृतं षोडशभिर्गुणैः। मनीषीमनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि।। | 12-245-15a 12-245-15b |
न ह्ययं चक्षुषा दृश्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः। मनसा दीपभूतेन महानात्मा प्रकाशते।। | 12-245-16a 12-245-16b |
अशब्दस्पर्शरूपं तदरसागन्धमव्ययम्। अशरीरं शरीरेषु निरीक्षते निरिन्द्रियम्।। | 12-245-17a 12-245-17b |
अव्यक्तं सर्वदेहेषु मर्त्येष्वमृतमाहितम्। योऽनुपश्यति स प्रेत्य कल्पते ब्रह्मभूयसे।। | 12-245-18a 12-245-18b |
विद्याभिजनसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। | 12-245-19a 12-245-19b |
स हि सर्वेषु भूतेषु जङ्गमेषु ध्रुवेषु च। वसत्येको महानात्मा येन सर्वमिदं ततम्।। | 12-245-20a 12-245-20b |
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। यदा पश्यति भूतात्मा ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-245-21a 12-245-21b |
यावानात्मनि मे ह्यात्मा तावानात्मा परात्मनि। य एवं सततं वेद सोऽमृतत्वाय कल्पते।। | 12-245-22a 12-245-22b |
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतहितस्य च। देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः।। | 12-245-23a 12-245-23b |
शकुन्तानामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके। यथा गतिर्न दृश्येत तथा ज्ञानविदां गतिः।। | 12-245-24a 12-245-24b |
कालः पचति भूतानि सर्वाण्येवात्मनाऽऽत्मनि। यस्मिंस्तु पच्यते कालस्तं वेदेह न कश्चन।। | 12-245-25a 12-245-25b |
न स ऊर्ध्वं न तिर्यक्च नाधश्चरति यः पुनः। न मध्ये प्रतिगृह्णीते नैव किंचित्कुतश्चन।। | 12-245-26a 12-245-26b |
सर्वेऽन्तस्था इमे लोका बाह्यमेषां न किंचन। यः सहस्र समा गच्छेद्यथा बाणो गुणच्युतः।। | 12-245-27a 12-245-27b |
नैवान्तं कारणस्येयाद्यद्यपि स्यान्मनोजवः। तस्मात्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नास्ति स्थूलतरं ततः।। | 12-245-28a 12-245-28b |
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृरत्य तिष्ठति।। | 12-245-29a 12-245-29b |
तदेवाणोरणुतरं तन्महद्भ्यो महत्तरम्। तदन्तः सर्वभूतानां ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते।। | 12-245-30a 12-245-30b |
अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः। क्षरः सर्वेषु भूतेषु दिवि ह्यमृतमक्षरम्।। | 12-245-31a 12-245-31b |
नवद्वारं पुरं गत्वा हंसो हि नियतो वशी। ईशः सर्वस्य भूतस्य स्थावरस्य चरस्य च।। | 12-245-32a 12-245-32b |
हानिभङ्गविकल्पानां नवानां संचयेन च। शरीराणामजस्याहुर्हंसत्वं पारदर्शिनः।। | 12-245-33a 12-245-33b |
हंसोक्तं चाक्षरं चैव कूटस्थं यत्तदक्षरम्। तद्विद्वानक्षरं प्राप्य जहाति प्राणजन्मनी।। | 12-245-34a 12-245-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 245।। |
12-245-2 अनागतं प्रत्यक्षानुमानाभ्यामज्ञातम्। अनैतिह्यं इदमित्थमिति वेदेनापि न निर्देश्यम्।। 12-245-5 विद्यादिपदैः क्रमेणाश्रमचतुष्ट्यधर्मा उक्ताः।। 12-245-7 खेषु नासादिरन्ध्रेषु।। 12-245-8 क्रान्ते पादे बले पाणौ च विष्णुशक्रौ तत्प्रयोक्तारौ तिष्ठतः। कर्णौ स्थानं श्रोत्रमिन्द्रियं दिशो देवताः। जिह्वा स्थानं वागिन्द्रियं सरस्वती देवता। एतच्चान्यषामपि स्थानादीनामुपलक्षणम्।। 12-245-9 आहारः शब्दादिग्रहः।।
शांतिपर्व-244 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-246 |