महाभारतम्-12-शांतिपर्व-104
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कौसल्यकालकवृक्षीयसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-104-1x |
धार्मिकोऽर्थानसंप्राप्य राजामात्यैः प्रबाधितः। च्युतः कोशाच्च दण्डाच्च सुखमिच्छन्कथं चरेत्।। | 12-104-1a 12-104-1b |
भीष्म उवाच। | 12-104-2x |
अत्रायं क्षेमदर्शीय इतिहासोऽनुगीयते। तत्तेऽह संप्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-104-2a 12-104-2b |
क्षेमदर्शी नृपसुतो यत्र क्षीणबलः पुरा। मुनिं कालकवृक्षीयमाजमामेति नः श्रुतम्। तं पप्रच्छानुसंगृह्य कृच्छ्रामापदमास्थितः।। | 12-104-3a 12-104-3b 12-104-3c |
अर्थेषु मागी पुरुष ईहमानः पुनः पुनः। अलब्ध्वा मद्विधो राज्यं ब्रह्मन्किं कर्तुमर्हति।। | 12-104-4a 12-104-4b |
अन्यत्र मरणाद्दैन्यादन्यत्र परसंश्रयात्। क्षुद्रादन्यत्र चाचारात्तन्ममाचक्ष्व सत्तम।। | 12-104-5a 12-104-5b |
व्याधिनां चाभिपन्नस्य मानसेनेतरेण वा। बहुश्रुतः कृतप्रज्ञस्त्वद्विधः शरणं भवेत्।। | 12-104-6a 12-104-6b |
निर्विद्य हि नरः कामान्नियम्य सुखमेधते। त्वक्त्वा प्रीतिं च शोकं च लब्ध्वा बुद्धिमयं वसु।। | 12-104-7a 12-104-7b |
सुखमर्थाश्रयं येषामनुशोचामि तानहम्। मम ह्यर्थाः सुबहवो नष्टाः स्वप्नगता इव।। | 12-104-8a 12-104-8b |
दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽर्थांस्त्यजन्ति ये। वयं त्वेतान्परित्यक्तुमसतोऽपि न शक्नुमः।। | 12-104-9a 12-104-9b |
इमामवस्थां संप्राप्तं दीनमार्तं श्रिया च्युतम्। यदन्यत्सुखमस्तीह तद्ब्रह्मन्ननुशाधि माम्।। | 12-104-10a 12-104-10b |
कौसल्येनैवमुक्तस्तु राजपुत्रेण धीमता। मुनिः कालकवृक्षीयः प्रत्युवाच महाद्युतिः।। | 12-104-11a 12-104-11b |
पुरस्तादेव ते बुद्धिरियं कार्या विजानतः। अनित्यं सर्वमेवैतदहं च मम चास्ति यत्।। | 12-104-12a 12-104-12b |
यत्किंचिन्मन्यसेऽस्तीति सर्वं नास्तीति विद्धि तत्। एवं न व्यथते प्राज्ञः कृच्छ्रामप्यापदं गतः।। | 12-104-13a 12-104-13b |
यद्धि भूतं भविष्यच्च ध्रुवं तन्न भविष्यति। एवं विदितवेद्यस्त्वमनर्थेभ्यः प्रमोक्ष्यसे।। | 12-104-14a 12-104-14b |
ये च पूर्वसमारम्भा ये च पूर्वतरे परे। सर्वं नास्तीति ते चैव तज्ज्ञात्वा को नु संज्वरेत्।। | 12-104-15a 12-104-15b |
भूत्वा च न भवत्येतदभूत्वा च भविष्यति। शोके न ह्यस्ति सामर्थ्यं शोचेत स कथं नरः।। | 12-104-16a 12-104-16b |
क्वनु तेऽद्य पिता राजन्क्वनु तेऽद्य पितामहः। न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वां पश्यन्ति तेऽपि वा।। | 12-104-17a 12-104-17b |
आत्मनोऽध्रुवतां पश्यंस्तांस्त्वं किमनुशोचसि। बुद्ध्या चैवानुबुद्ध्यस्व ध्रुवं हि न च विद्यते।। | 12-104-18a 12-104-18b |
अहं च त्वं च नृपते सुहृदः शत्रवश्च ते। अवश्यं न भविष्यामः सर्वं च न भविष्यति।। | 12-104-19a 12-104-19b |
ये तु विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः। अर्वागेव हि ते सर्वे मरिष्यन्ति शरच्छतात्।। | 12-104-20a 12-104-20b |
अपि चेन्महतो वित्तान्न प्रमुच्यते पूरुषः। नैतन्ममेति तन्मत्वा कुर्वीत प्रियमात्मनः।। | 12-104-21a 12-104-21b |
अनागतं यन्न ममेति विद्या दतिक्रान्तं यन्न ममेति विद्यात्। दिष्टं बलीय इति मन्यमाना स्ते पण्डितास्तत्सतां वृत्तिमाहुः।। | 12-104-22a 12-104-22b 12-104-22c 12-104-22d |
अनाढ्याश्चापि जीवन्ति राज्यं चाप्यनुशासते। बुद्धिपौरुषसंपन्नास्त्वया तुल्याधिका जनाः।। | 12-104-23a 12-104-23b |
न च त्वमिव शोचन्ति तस्मात्त्वमपि मा शुचः। किं न त्वं तैर्नरैः श्रेयांस्तुल्यो वा बुद्धिपौरुषैः।। | 12-104-24a 12-104-24b |
राजोवाच। | 12-104-25x |
यादृच्छिकं सर्वमासीत्तद्राज्यमिति चिन्तये। ह्रियते सर्वमेवेदं कालेन महता द्विज।। | 12-104-25a 12-104-25b |
तस्यैव ह्रियमाणस्य स्रोतसेव तपोधन। फलमेतत्प्रपश्यामि यथालब्धेन वर्तयन्।। | 12-104-26a 12-104-26b |
मुनिरुवाच। | 12-104-27x |
अनागतमतीतं च याथातथ्यविनिश्चयात्। नानुशोचेत कौसल्य सर्वार्थेषु तथा भव।। | 12-104-27a 12-104-27b |
अवाप्यान्कामयन्नर्थान्नानवाप्यान्कदाचन। प्रत्युत्पन्नाननुभवन्मा शुचस्त्वमनागतान्।। | 12-104-28a 12-104-28b |
यथालब्धोपपन्नार्थैस्तथा कौसल्य रंस्यसे। कच्चिच्छुद्धस्वभावेन श्रिया हीनो न शोचसि।। | 12-104-29a 12-104-29b |
पुरस्ताद्भूतपूर्वत्वाद्धीनभोग्यो हि दुर्मतिः। धातारं गर्हते नित्यं लब्धार्थश्च न मृष्यते।। | 12-104-30a 12-104-30b |
अनर्हानपि चैवान्यान्मन्यते श्रीमतो जनान्। एतस्मात्कारणादेतद्दुःखं भूयोऽनुवर्तते।। | 12-104-31a 12-104-31b |
ईर्ष्याभिमानसंपन्ना राजन्पुरुषमानिनः। कच्चित्त्वं न तथा प्राज्ञ मत्सरी कोसलाधिप।। | 12-104-32a 12-104-32b |
सहस्व श्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा। अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते नराः। अभिनिष्यन्दते देही श्रीभूतश्च द्विषज्जनात्।। | 12-104-33a 12-104-33b 12-104-33c |
श्रियं च पुत्रपौत्रं च मनुष्या धर्मचारिणः। त्यागधर्मविदो धीराः स्वयमेव त्यजन्त्युत।। | 12-104-34a 12-104-34b |
`त्यक्तं स्वायंभुवे वंशे शुभेन भरतेन च। नानारत्नसमाकीर्णं राज्यं स्फीतमिति श्रुतम्।। | 12-104-35a 12-104-35b |
तथाऽन्यैर्भूमिपालैश्च त्यक्तं राज्यं महोदयम्। त्यक्त्वा राज्यानि ते सर्वे वने वन्यफलाशिनः। गताश्च तपसः पारं दुःखस्यान्तं च भूमिपा।। | 12-104-36a 12-104-36b 12-104-36c |
बहुसंकुसुकं दृष्ट्वा विधित्सासाधनेन च। तथान्ये संत्यजन्त्येव मत्वा परमदुर्लभम्।। | 12-104-37a 12-104-37b |
त्वं पुनः प्राज्ञरूपः सन्कृपणं परितप्यसे। अकाम्यान्कामयानोऽर्थान्पराधीनानुपद्रवान्।। | 12-104-38a 12-104-38b |
तां बुद्धिमनुविज्ञाय त्वमेवैनान्परित्यज। अनर्थाश्चार्थरूपेण ह्यर्थाश्चानर्थरूपिणः।। | 12-104-39a 12-104-39b |
अर्थायैव हि केषांचिद्धननाशा भवन्त्युत। अनित्यं तत्सुखं मत्वा श्रियमन्ये न लिप्सते।। | 12-104-40a 12-104-40b |
रममाणः श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते। तथा तस्येहमानस्य संरम्भोऽपि विनश्यति।। | 12-104-41a 12-104-41b |
कृच्छ्राल्लब्धमभिप्रेतं यथा कौसल्य नश्यति। तदा निर्विद्यते सोऽर्थात्परिभग्नक्रमो नरः।। | 12-104-42a 12-104-42b |
`अनित्यां तां श्रियं मत्वा श्रियं वा कः परीप्सति।।' | 12-104-43a |
धर्ममेकेऽभिपद्यन्ते कल्याणाभिजना नराः। परत्र सुखमिच्छन्तो निर्विद्येयुश्च लौकिकात्।। | 12-104-44a 12-104-44b |
जीवितं संत्यजन्त्येके धनलोभपरा नराः। न जीवितार्थं मन्यन्ते पुरुषा हि धनादृते।। | 12-104-45a 12-104-45b |
पश्य चैषां कृपणतां पश्य चैषामबुद्धिताम्। अध्रुवे जीविते मोहादर्थतृष्णामुपाश्रिताः।। | 12-104-46a 12-104-46b |
संचये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते। संयोगे च वियोगान्ते कोनु विप्रणयेन्मनः।। | 12-104-47a 12-104-47b |
धनं वा पुरुषो राजन्पुरुषं वा पुनर्धनम्। अवश्यं प्रजहात्येव तद्विद्वान्कोनु संज्वरेत्।। | 12-104-48a 12-104-48b |
अन्यत्रोपनता ह्यापत्पुरुषं तोषयत्युत। तेन शान्तिं न लभते नाहमेवेति कारणात्।।' | 12-104-49a 12-104-49b |
अन्येषामपि नश्यन्ति सुहृदश्च धनानि च। पश्य बुद्ध्या मनुष्याणां तुल्यामापदमात्मनः। नियच्छ यच्छ संयच्छ इन्द्रियाणि मनस्तथा।। | 12-104-50a 12-104-50b 12-104-50c |
प्रतिषेद्धा न चाप्येषु दुर्बलेष्वहितेषु च।। | 12-104-51a |
प्राप्तिसृष्टेषु भावेषु व्यपकृष्टेष्वसंभवे। प्रज्ञानतृप्तो विक्रान्तस्त्वद्विधो नानुशोचति।। | 12-104-52a 12-104-52b |
अल्पमिच्छन्नचपलो मृदुर्दान्तः सुसंस्थितः। ब्रह्मचर्योपपन्नश्च त्वद्विधो नैव मुह्यति।। | 12-104-53a 12-104-53b |
न त्वेव जाल्मीं कापालीं वृत्तिमेषितुमर्हसि। नृशंसवृत्तिं पापिष्ठां दुःखां कापुरुषोचिताम्।। | 12-104-54a 12-104-54b |
अपि मूलफलाहारो रमस्वैको महावने। वाग्यतः संगृहीतात्मा सर्वभूतदयान्वितः।। | 12-104-55a 12-104-55b |
सदृशं पण्डितस्यैतदीषादन्तेन हस्तिना। यदेको रमतेऽरण्ये यच्चाप्यल्पेन तुष्यति।। | 12-104-56a 12-104-56b |
महाह्रदः संक्षुभित आत्मनैव प्रसीदति। `एवं नरः स्वत्मानैव कृतप्रज्ञः प्रसीदति।।' | 12-104-57a 12-104-57b |
एतदेवं गतस्याहं सुखं पश्यामि केवलम्। असंभवे श्रियो राजन्हीनस्य सचिवादिभिः। दैवे प्रतिनिविष्टे च किं श्रेयो मन्यते भवान्।। | 12-104-58a 12-104-58b 12-104-58c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। 104।। |
12-104-4 भागी भागार्हः। ईहमानो यतमानः।। 12-104-6 इतरेण शारीरेण।। 12-104-7 निर्विद्य विरज्य। कामाद्विषयभोगात्। बुद्धिमयं वसु ज्ञानरूपं धनम्।। 12-104-12 इयं निर्विद्यतीति श्लोकेन त्वया प्रोक्ता। अहं च यच्च ममाऽस्त्येतत्सर्वमनित्यमिति जानतस्ते त्वया।। 12-104-13 नास्ति तुच्छत्वात्।। 12-104-22 तन्निर्ममत्वम्।। 12-104-25 यादृच्छिकमयत्नादागतम्।। 12-104-26 एतच्छोकाख्यं फलं यथालब्धेन वर्तयन् जीवन्नपि पश्यामि। यादृच्छिकस्य नाशेन जीवनालोपेऽपि शोको न नश्यतीत्यर्थः।। 12-104-30 न मृष्यते तैर्न संतुष्यति।। 12-104-33 अन्यत्र शत्रौ। कुशला निर्मत्सराः। अभिनिष्यदन्ते प्रस्रवति।। 12-104-37 विधित्सा क्रियाणामनुपरमस्तेन साधनेन च संकुसुकमस्थिरम्।। 12-104-38 उपद्रवानस्थिरान्।। 12-104-39 अर्थरूपेण भासमानाः।। 12-104-40 आद्यस्योदाहरणं अर्थायेति।। 12-104-41 द्वितीयस्योदाहरण रममाण इति।। 12-104-42 परिभग्नकमो नष्टारम्भः।। 12-104-47 विप्रणयेद्दद्यात्।। 12-104-50 नियम्य सर्वं सङ्गं च इति ट. ड. पाठः।। 12-104-52 प्रतिकृष्टेषु भाग्येषु व्यपकृष्टेषु संभवे इति ट.थ. पाठः।।
शांतिपर्व-103 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-105 |