महाभारतम्-12-शांतिपर्व-204
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मनुबृहस्पतिसंवादानुवादसमापनम्।। 1।।
मनुरुवाच। | 12-204-1x |
`तदेव सततं मन्ये न शक्यमनुवर्णितुम्। यथा निदर्शनं वस्तु न शक्यमनुबोधितुम्।। | 12-204-1a 12-204-1b |
यथाहि सारं जानाति न कथंचन संस्थितम्। परकायच्छविस्तद्वद्देहेऽयं चेतनस्तथा।। | 12-204-2a 12-204-2b |
विना कायं न सा च्छाया तां विना कायमस्त्युत। तद्वदेव विना नास्ति प्रकृतेरिह वर्तनम्।। | 12-204-3a 12-204-3b |
इदं वै नास्ति नेदमस्ति परं विना। जीवात्मना त्वसौ छिन्नस्त्वेष चैव परात्मना।। | 12-204-4a 12-204-4b |
तत्तवेति विदुः केचिदतथ्यमिति चापरे। उभयं मे मतं विद्वन्मुक्तिहेतौ समाहितम्।। | 12-204-5a 12-204-5b |
विमुक्तैश्च मृगः सोऽपि दृश्यते संयतेन्द्रियः। सर्वेषां न हि दृश्यो हि तटिद्वत्स्फुरति ह्यसौ।। | 12-204-6a 12-204-6b |
ब्राह्मणस्य समादृश्यो वर्तते सोऽपि किं पुनः। विद्यते परमः शुद्धः साक्षिभूतो विभावसुः।। | 12-204-7a 12-204-7b |
श्रुतिरेषा ततो नित्या तस्मादेकः परो मतः। न प्रयोजनमुद्दिश्य चेष्टा तस्य महात्मनः।। | 12-204-8a 12-204-8b |
तादृशोस्त्विति मन्तव्यस्तथा सत्यं महात्मना। नानासंस्थेन भेदेन सदा गतिविभेदवत्। तस्य भेदः समाख्यातो भेदो ह्यस्ति तथाविधः।। | 12-204-9a 12-204-9b 12-204-9c |
एवं विद्वन्विजानीहि परमात्मानमव्ययम्। तत्तद्गुणविशेषेण संज्ञानामनुसंयुतम्।। | 12-204-10a 12-204-10b |
सर्वेश्वरः सर्वमयः स च सर्वप्रवर्तकः। सर्वात्मकः सर्वशक्तिः सर्वकारणकारणम्।। | 12-204-11a 12-204-11b |
सर्वसाधारणः सर्वैरुपास्यश्च महात्मभिः। वासुदेवेति विख्यातस्तं विदित्वाऽश्नुतेऽमृतम्।।' | 12-204-12a 12-204-12b |
यदा ते प़ञ्चभिः पञ्च युक्तानि मनसा सह। अथ तद्द्रक्ष्यते ब्रह्म मणौ सूत्रमिवार्पितम्।। | 12-204-13a 12-204-13b |
तदेव च यथा सूत्रं सुवर्णे वर्तते पुनः। मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृन्मये राजते तथा।। | 12-204-14a 12-204-14b |
तद्वद्गोऽश्वमनुष्येषु तद्वद्धस्तिमृगादिषु। तद्वत्कीटपतङ्गेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः।। | 12-204-15a 12-204-15b |
येनयेन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम्। तेनतेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते।। | 12-204-16a 12-204-16b |
यथा ह्येकरसा भूमिरोषध्यर्थानुसारिणी। तथा कर्मानुगा बुद्धिरन्तरात्माऽनुदर्शिनी।। | 12-204-17a 12-204-17b |
ज्ञानपूर्वोद्भवा लिप्सा लिप्सापूर्वाभिसन्धिता। अभिसन्धिपूर्वकं कर्म कर्ममूलं ततः फलम्।। | 12-204-18a 12-204-18b |
फलं कर्मत्मकं विद्यात्कर्म ज्ञेयात्मकं तथा। ज्ञेयं ज्ञानात्मकं विद्याज्ज्ञानं सदसदात्मकम्।। | 12-204-19a 12-204-19b |
`तदेवमिष्यते ब्रह्म संख्यानाद्विनिभिद्यते।' ज्ञानानां च फलानां च ज्ञेयानां कर्मणां तथा। क्षयान्ते यत्फलं विद्याज्ज्ञानं ज्ञेयप्रतिष्ठितम्।। | 12-204-20a 12-204-20b 12-204-20c |
महद्धि परमं भूतं युक्ताः पश्यन्ति योगिनः। अबुधास्तं न पश्यन्ति ह्यात्मस्थं गुणबुद्धयः।। | 12-204-21a 12-204-21b |
पृथिवीरुपतो रूपमपामिह महत्तरम्। अद्भ्यो महत्तरं तेजस्तेजसः पवनो महान्।। | 12-204-22a 12-204-22b |
पवनाच्च महद्व्योम तस्मात्परतरं मनः। मनसो महती बुद्धिर्बुद्धेः कालो महान्स्मृतः।। | 12-204-23a 12-204-23b |
कालात्स भगवान्विष्णुर्यस्य सर्वमिदं जगत्। नादिर्न मध्यं नैवान्तस्तस्य देवस्य विद्यते।। | 12-204-24a 12-204-24b |
अनादित्वादमध्यत्वादनन्तत्वाच्च सोऽव्ययः। अत्येति सर्वदुःखानि दुःखं ह्यन्तवदुच्यते।। | 12-204-25a 12-204-25b |
तद्ब्रह्म परमं प्रोक्तं तद्धाम परमं पदम्। तद्गत्वा कालविषयाद्विमुक्ता मोक्षमाश्रिताः।। | 12-204-26a 12-204-26b |
गुणेष्वेते प्रकाशन्ते निर्गुणत्वात्ततः परम्। निवृत्तिलक्षणो धर्मस्तथाऽऽनन्त्याय कल्पते।। | 12-204-27a 12-204-27b |
ऋचो यजूंषि सामानि शरीराणि व्यपाश्रिताः। जिह्वाग्रेषु प्रवर्तन्ते यत्नसाध्याविनाशिनः।। | 12-204-28a 12-204-28b |
न चैवमिष्यते ब्रह्म शरीराश्रयसंभवम्। न यत्नसाध्यं तद्ब्रह्म नादिमध्यं न चान्तवन्।। | 12-204-29a 12-204-29b |
ऋचामादिस्तथा साम्नां यजुषामादिरुच्यते। अन्तश्चादिमतां दृष्टो न त्वादिर्ब्रह्मणः स्मृतः।। | 12-204-30a 12-204-30b |
अनादित्वादनन्तत्वात्तदनन्तमथाव्ययम्। अव्ययत्वाच्च निर्दुःखं द्वन्द्वाभावस्ततः परम्।। | 12-204-31a 12-204-31b |
अदृष्टतोऽनुपायाच्च प्रतिसन्धेश्च कर्मणः। न तेन मर्त्याः पश्यन्ति येन गच्छान्त तत्पदम्।। | 12-204-32a 12-204-32b |
विषयेषु च संसर्गाच्छाश्वतस्य च संशयात्। मनसा चान्यदाकाङ्क्षन्परं न प्रतिपद्यते।। | 12-204-33a 12-204-33b |
गुणान्यदिह पश्यन्ति तदिच्छन्त्यपरे जनाः। परं नैवाभिकाङ्क्षन्ति निर्गुणत्वाद्गुणार्थिनः।। | 12-204-34a 12-204-34b |
गुणैर्यस्त्ववरैर्युक्तः कथं विद्याद्गुणानिमान्। अनुमानाद्धि गन्तव्यं गुणैरवयवैः परम्।। | 12-204-35a 12-204-35b |
सूक्ष्मेण मनसा विद्मो वाचा वक्तुं न शक्नुमः। मनो हि मनसा ग्राह्यं दर्शनेन च दर्शनम्।। | 12-204-36a 12-204-36b |
ज्ञानेन निर्मलीकृत्य बुद्धिं बुद्ध्या मनस्तथा। मनसा चेन्द्रियग्राममक्षरं प्रतिपद्यते।। | 12-204-37a 12-204-37b |
बुद्धिप्रहीणो मनसा समृद्ध स्तथाऽनिराशीर्गुणतामुपैति। परं त्यजन्तीह विलोभ्यमाना हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम्।। | 12-204-38a 12-204-38b 12-204-38c 12-204-38d |
गुणादाने विप्रयोगे च तेषां मनः सदा विद्धि परावराभ्याम्। अनेनैव विधिना संप्रवृत्तो गुणादाने ब्रह्म शरीरमेति।। | 12-204-39a 12-204-39b 12-204-39c 12-204-39d |
अव्यक्तात्मा पुरुषोऽव्यक्तकर्मा सोऽव्यक्तत्वं गच्छति ह्यन्तकाले। तैरेवायं चेन्द्रियैर्वर्धमानै र्ग्लायद्भिर्वा वर्ततेऽकामरूपः।। | 12-204-40a 12-204-40b 12-204-40c 12-204-40d |
सर्वैरयं चेन्द्रियैः संप्रयुक्तो देहं प्राप्तः यञ्चभूताश्रयः स्यात्। न सामर्थ्याद्गच्छति कर्मणेह हीनस्तेन परमेणाव्ययेन।। | 12-204-41a 12-204-41b 12-204-41c 12-204-41d |
पृथ्व्या नरः पश्यति नान्तमस्या ह्यन्तश्चास्या भविता चेति विद्धि। परं न यातीह विलोभ्यमानो यथा प्लवं वायुरिवार्णवस्थम्।। | 12-204-42a 12-204-42b 12-204-42c 12-204-42d |
दिवाकरो गुणमुपलभ्य निर्गुणो यथा भवेदपगतरश्मिमण्डलः। तथां ह्यसौ मुनिरिह निर्विशेषवान् स निर्गुणं प्रविशति ब्रह्म चाव्ययम्।। | 12-204-43a 12-204-43b 12-204-43c 12-204-43d |
अनागतं सुकृतवतां परां गतिं स्वयंभुवं प्रभवनिधानमव्ययम्। सनातनं यदमृतमव्ययं ध्रुवं निचाय्य तत्परममृतत्वमश्नुते।। | 12-204-44a 12-204-44b 12-204-44c 12-204-44d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 204।। |
12-204-16 येनयेन पित्र्येण दैवेन गान्धर्वेण प्राजापत्येन वा प्राप्येण हेतुभूतेन यस्य यस्य देहस्य प्राप्त्यर्थमित्यर्थः। यद्यत्कर्म यज्ञादिकम्।। 12-204-33 शाश्वतस्य दर्शनात् इति झ. पाठः।। 12-204-40 यो व्यक्तत्वं गच्छति ब्रह्मभूयः। सुपुष्पितैः कर्मभिरिद्ध्यमानः सायंदिवो वर्तते कर्मरूपः इति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-203 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-205 |