महाभारतम्-12-शांतिपर्व-281
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति भूतोत्पत्तिविनाशादिप्रतिपादकदेवलनारदसंवादानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-281-1x |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नारदस्य च संवादं देवलस्यासितस्य च।। | 12-281-1a 12-281-1b |
आसीनं देवलं वृद्धं बुद्ध्वा बुद्धिमतां वरम्। नारदः परिपप्रच्छ भूतानां प्रभवाप्ययम्।। | 12-281-2a 12-281-2b |
नारद उवाच। | 12-281-3x |
कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन्स्थावरजङ्गमम्। प्रलये च कमभ्येति तद्भवान्प्रब्रवीतु मे।। | 12-281-3a 12-281-3b |
असित उवाच। | 12-281-4x |
येभ्यः सृजति भूतानि कालो भावप्रचोदितः। महाभूतानि पञ्चेति तान्याहुर्भूतचिन्तकाः।। | 12-281-4a 12-281-4b |
तेभ्यः सृजति भूतानि काल आत्मप्रचोदितः। एतेभ्यो यः परं ब्रूयादसद्ब्रूयादसंशयम्।। | 12-281-5a 12-281-5b |
विद्धि नारद पञ्चैताञ्शाश्वतानचलान्ध्रुवान्। महतस्तेजसो राशीन्कालषष्ठान्स्वभावतः।। | 12-281-6a 12-281-6b |
आपश्चैवान्तरिक्षं च पृथिवी वायुपावकौ। असिद्धिः परमेतेभ्यो भूतेभ्यो मुक्तसंशयम्।। | 12-281-7a 12-281-7b |
नोपपत्त्या न वा युक्त्या त्वसद्ब्रूयादसंशयम्। वेत्थैतानभिनिर्वृत्तान्षडेते यस्य राशयः।। | 12-281-8a 12-281-8b |
पञ्चैव तानि कालश्च भावाभावौ च केवलौ। अष्टौ भूतानि भूतानां शाश्वतानि भवाव्ययौ।। | 12-281-9a 12-281-9b |
अभावभावितेष्वेव तेभ्यश्च प्रभवन्त्यपि। विनष्टोऽप्यनुतान्येव जन्तुर्भवति पञ्चधा।। | 12-281-10a 12-281-10b |
तस्य भूमिमयो देहः श्रोत्रमाकाशसंभवम्। सूर्याच्चक्षुरसुर्वायोरद्भ्यस्तु खलु शोणितम्।। | 12-281-11a 12-281-11b |
चक्षुषी नासिकाकर्णौ त्वक् जिह्वेति च प?ञ्चमी। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थानां ज्ञानानि कवयो विदुः।। | 12-281-12a 12-281-12b |
दर्शनं श्रवणं घ्राणं स्पर्शनं रसनं तथा। उपपत्त्या गुणान्विद्धि पञ्च पञ्चसु धातुषु।। | 12-281-13a 12-281-13b |
रूपं गन्धो रसः स्पर्शः शब्दश्चैवाथ तद्गुणाः। इन्द्रियैरुपलभ्यन्ते पञ्चधा पञ्च पञ्चभिः।। | 12-281-14a 12-281-14b |
रूपं गन्धं रसं स्पर्शं शब्दं चैवाथ तद्गुणान्। इन्द्रियाणि न बुध्यन्ते क्षेत्रज्ञस्तैस्तु बुध्यते।। | 12-281-15a 12-281-15b |
चित्तमिन्द्रियसंघातात्परं तस्मात्परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिः क्षेत्रज्ञो बुद्धितः परः।। | 12-281-16a 12-281-16b |
पूर्वं चेतयते जन्तुरिन्द्रियैर्विषयान्पृथक्। विचार्य मनसा पश्चादथ बुद्ध्या व्यवस्यति। इन्द्रियैरुपसृष्टार्थान्मत्वा यस्त्वध्यवस्यति।। | 12-281-17a 12-281-17b 12-281-17c |
चित्तमिन्द्रियसंघातं मनो बुद्धिस्तथाऽष्टमी। अष्टौ ज्ञानेन्द्रियाण्याहुरेतान्यध्यात्मचिन्तकाः।। | 12-281-18a 12-281-18b |
पाणिं पादं च पायुं च मेहनं पञ्चमं मुखम्। इति संशब्द्यमानानि शृणु कर्मेन्द्रियाण्यपि।। | 12-281-19a 12-281-19b |
जल्पनाभ्यवहारार्थं मुखमिन्द्रियमुच्यते। गमनेन्द्रियं तथा पादौ कर्मणः करणे करौ।। | 12-281-20a 12-281-20b |
पायूपस्थं विसर्गार्थमिन्द्रिये तुल्यकर्मणी। विसर्गे च पुरीषस्य विसर्गे चापि कामिके।। | 12-281-21a 12-281-21b |
मनः षष्ठान्यथैतानि वाचा सम्यग्यथागमम्। ज्ञानचेष्टेन्द्रियगुणाः सर्वेषां शब्दिता मया।। | 12-281-22a 12-281-22b |
इन्द्रियाणां स्वकर्मभ्यः श्रमादुपरमो यदा। भवतीन्द्रियसंन्यासादथ स्वपिति वै नरः।। | 12-281-23a 12-281-23b |
इन्द्रियाणां व्युपरमे मनोऽव्युपरतं यदि। सेवते विषयानेव तं विद्यात्स्वप्नदर्शनम्।। | 12-281-24a 12-281-24b |
सात्विकाश्चैव ये भावास्तथा राजसतामसाः। कर्मयुक्ताः प्रशंसन्ति सात्विकान्नेतरांस्तथा।। | 12-281-25a 12-281-25b |
आनन्दः कर्मणां सिद्धिः प्रतिपत्तिः परा गतिः। सात्विकस्य निमित्तानि भावान्संश्रयसे स्मृतिः।। | 12-281-26a 12-281-26b |
जन्तुष्वेकतमेष्वेवं भावं यो वा समास्थितः। भावयोरीप्सितं नित्यं प्रत्यक्षं गमनं द्वयोः।। | 12-281-27a 12-281-27b |
इन्द्रियाणि च भावाश्च गुणाः सप्तदश स्मृताः। तेषामष्टादशो देही यः शरीरे स शाश्वतः।। | 12-281-28a 12-281-28b |
अथवा सशरीरास्ते गुणाः सर्वे शरीरिणाम्। संश्रितास्तद्वियोगे हि सशरीरा न सन्ति ते।। | 12-281-29a 12-281-29b |
अथवा संविभागेन शरीरं पाञ्चभौतिकम्। एकश्च दश चाष्टौ च गुणाः सह शरीरिणाम्। ऊष्मणा सह विशो वा संघातः पाञ्चभौतिकः।। | 12-281-30a 12-281-30b 12-281-30c |
महान्संधारयत्येतच्छरीरं वायुना सह। सत्यप्रभावयुक्तस्य निमित्तं देहभेदने।। | 12-281-31a 12-281-31b |
तथैवोत्पद्यते किंचित्पञ्चत्वं गच्छते तथा। पुण्यपापविनाशान्ते पुण्यपापसमीरितः। देहं विशति कालेन ततोऽयं कर्मसंभवम्।। | 12-281-32a 12-281-32b 12-281-32c |
हित्वाहित्वा ह्ययं प्रैति देहाद्देहं कृताश्रयः। कालसंचोदितः क्षेत्री विशीर्णाद्वा गृहाद्गृहम्।। | 12-281-33a 12-281-33b |
तं तु नैवानुतप्यन्ते प्राज्ञा निश्चितनिश्चयाः। कृपणास्त्वनुतप्यन्ते जनाः संबन्धिमानिनः।। | 12-281-34a 12-281-34b |
न ह्ययं कस्यचित्कश्चिन्नास्य कश्चन विद्यते। भवत्येको ह्ययं नित्यं शरीरे सुखदुःखकृत्।। | 12-281-35a 12-281-35b |
नैव संजायते जन्तुर्न च जातु विपद्यते। याति देहमयं मुक्त्वा कदाचित्परमां गतिम्।। | 12-281-36a 12-281-36b |
पुण्यपापमयं देहं क्षपयन्कर्मसंक्षयात्। क्षीणदेहः पुनर्देही ब्रह्मत्वमुपगच्छति।। | 12-281-37a 12-281-37b |
पुण्यपापक्षयार्थं हि साङ्ख्यज्ञानं विधीयते। तत्क्षये हृदि पश्यन्ति ब्रह्मभावे परां गतिम्।। | 12-281-38a 12-281-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 281।। |
12-281-13 पञ्चधेति झ. पाठः।। 12-281-37 क्षीणभोगः पुनर्देहीति ध. पाठः।।
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